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________________ अनन्त-ची सन स्वर्ण के समान कान्ति बाले विशाख नामक राजा ने भगवान को प्राहार देकर असीम पुण्य उपार्जन किया। देवों ने पंचाश्चर्य करके उसकी सराहना की। आहार लेकर भगवान विहार कर गये। केवलज्ञान कल्याणक-पापने दो वर्ष तक तपश्चरण किया, तब आपको अश्वत्थ वृक्ष के नीचे उसी सहेतुक वन में चैत्र कृष्णा प्रमावस्या को सायंकाल के समय रेवती नक्षत्र में सकल ज्ञेय-ज्ञायक केवलज्ञान उत्पन्न हो गया । उसी समय देवों ने ज्ञान कल्याणक को पूजा की। इन्द्र को प्राज्ञा से कुवेर ने समवसरण की रचना को। उसमें सिंहासन पर विराजमान होकर भगवान को दिव्य ध्वनि विखरी और भगवान ने धर्म-चक्र-प्रवर्तन किया। भगवान का संघ-भगवान के संघ में जय प्रादि ५० गणधर थे । १००० पूर्वधारी, ३२०० वादी, ३६५०० शिक्षक, ४३०० अवधिज्ञानी, ५००० केवलज्ञानी, ८००० विक्रिया ऋद्धिधारी, ५००० मनःपर्ययज्ञानी, इस प्रकार कुल ६६००० मुनि उनकी पूजा करते थे। सर्वश्री आदि १०८००० ग्रायिकायें थी। २००००० श्रावक और ४००००० श्राविकाय थीं। निर्वाण कल्याणक-भगवान अनन्तनाथ ने बहुत समय तक विभिन्न देशों में बिहार करके भव्य जीवों को अपने उपदेश द्वारा सन्मार्ग पर लगाया। अन्त में सम्मेद शिखर पर जाकर उन्होंने बिहार करना छोड़ दिया और एक माह का योग-निरोध कर छह हजार एक सौ मुनियों के साथ प्रतिमा योग धारण कर लिया तथा चैत्र कृष्णा अमावस्या के दिन रात्रि के प्रथम भाग में निर्वाण प्राप्त किया। देवों ने पाकर भगवान का अन्तिम संस्कार किया और पूजा की। यक्ष-यक्षिणी-भगवान अनन्तनाथ के सेवक यक्ष का नाम पाताल और यक्षिणी का नाम अनन्तमती था। अनन्त चतुर्दशी व्रत सोमशर्मा नामक एक ब्राह्मण था। वह रोगी, अपाहिज और दरिद्री था। वह देश-विदेश में फिरा, किन्तु जहाँ जाता, सब जगह उसे फटकार ही मिलती थी। कोई उसका पादर नहीं करता था और न उसे कोई धन ही देता था। एक दिन भगवान अनन्तनाथ का समवसरण देखकर और वहाँ राजा, रंक, देव और मनुष्यों को जाने देखकर वह भी समवसरण में चला गया। वहां उसने भगवान का अद्भत वैभव देखा। इन्द्र भगवान के ऊपर चंवर ढोल रहे थे । वृक्षों पर षट् ऋतुषों के फल-फूल लहलहा रहे थे। शेर और हिरन, सर्प-नेवला, बिल्ली-चूहा जैसे जाति-विरोधी जीव बड़े प्रेम से पास-पास ब ।। देवों और मनुष्यों की अपार भीड़ लगो हुई थी। चारों ओर शान्ति और प्रेम का साम्राज्य था। समवसरण की अद्भुत महिमा को देखकर सोमशर्मा साहस करके आगे बढ़ा और भगवान को नमस्कार करके विनयपूर्वक बोला-भगवन् ! मैं बड़ा भाग्यहीन, दीन, दरिद्री हूँ, रोगी हुँ, तिरस्कृत हूं। कहीं पेट भरने लायक भीख भी नहीं मिलती। कोई ऐसा उपाय बताइये, जिससे मेरे कष्ट दूर हो जायें। उसकी प्रार्थना सुनकर भगवान के मुख्य गणघर जय बोले-भव्य ! तुम भाद्रपद शुक्ला १४ को स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहन कर भगवान अनन्तनाथ का चौदह कलशों से अभिषेक करो, पूजन करो। उपवास रक्खो। रात्रि को भगवान का कीर्तन करो। इस प्रकार चौदह वर्ष तक उपवास आदि करो। जब चौदह वर्ष समाप्त हो जायें, तब गन्दिर में छत्र, वर, सिंहासन, कलशमादि चौदह वस्तुयें चढ़ाकर अनन्त चतुर्दशी व्रत का उद्यापन करो। यदि उद्यापन की शक्ति न हो तो दूने व्रत करो अर्थात् अट्ठाईस वर्ष तक इसी प्रकार व्रत करो। अन्त समय में समाधिमरण धारण करो। इससे तुम्हारो दरिद्रता, रोग, शोक सब दूर हो जायेंगे।
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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