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________________ पचदश परिच्छेद भगवान अनन्तनाथ धातकी खण्ड द्वीप के पूर्व मेरु से उत्तर की ओर अरिष्ट नामक एक नगर था। उस नगर के राजा का नाम पद्मरथ था। उसने दीर्घकाल तक सांसारिक भोग भोगे । एक दिन वह स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के चरणों में पहुँचा। वहां उसने जिनेन्द्र प्रभु का उपदेश सुना। उसके मन में वैराग्य की भावनायें उदित हुई, राज्य, पूर्व भव परिवार और शरीर के प्रति उसकी आसक्ति जाती रही। उसने पपने पुत्र धनरय को बुलाकर राज्य सौंप दिया और वह मुनि हो गया। उसने घोर तप किया, ग्यारह मङ्गों का अध्ययन किया और निरन्तर सोलह कारण भावनामों का चिन्तन किया। फलतः उसे तीर्थकर नामकर्म का बन्ध हो गया। अन्त में सल्लेखना धारण करके शरीर छोड़ा और अच्युत स्वर्ग के पुष्पोत्सर विमान में इन्द्र पद प्राप्त किया। अयोध्या में इक्ष्वाकुवंशी काश्यप गोत्रीय राजा सिंहसेन राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम जयश्यामा था । देवों ने उनके घर पर रत्नवृष्टि की। एक दिन महारानी ने रात्रि के अन्तिम प्रहर में सोलह शम स्वप्न देखे । प्रातः होने पर उन्होंने अपने पति से उन स्वप्नों का फल पूछा। पति ने विचार गर्भ कल्याणक कर उत्तर दिया-देवी ! तुम्हारे गर्भ में त्रिलोकपूज्य तीर्थकर मवतार लेंगे। उस दिन कार्तिक कृष्णा प्रतिपदा और रेवती नक्षत्र था, जब अन्तुल स्वर्ग से इन्द्र का जीव अपनी मायू.पूर्ण नके गर्भ में पाया। उसी समय देवों ने गर्भ कल्याणक का अभिषेक करके वस्त्र, माला और आभूषणों से महाराज सिहसेन और महारानी जयश्यामा की पूजा की। अन्म कल्याणक-गर्भ सुख से बढ़ने लगा। नौ माह व्यतीत होने पर माता ने ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन पूषा योग में पुण्यशाली पूत्र उत्पन्न किया। उसी समय इन्द्रों और देवों ने आकर पुत्र का सुमेरु पर्वत पर अभिषेक करके जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया। इन्द्र ने पुत्र का नाम अनन्तनाथ रक्सा । उनका रंग देदीप्यमान सुवर्ण के समान था । उनके पैर में सेही का चिन्ह था । बालक क्रम से वृद्धि को प्राप्त हुया । जब भगवान यौवन अवस्था को प्राप्त हुये, तब पिता ने पुत्र का विवाह कर दिया और उसे राज्य-भार सौंप दिया। राज्य करते हुए जब बहुत काल बीत गया, तब एक दिन उल्का पात देखकर उन्हें संसार से वैराग्य हो गया। वे संसार की अनित्य दशा को देखकर विचार दीक्षा कल्याणक करने लगे इस अनित्य संसार में स्थिर केवल अपना आत्म-स्वरूप है। मैं अवतक पनित्य के पीछे भागता रहा, कभी आत्मस्वरूप की प्राप्ति का प्रयत्न नहीं किया। वे ऐसा विचार कर ही रहे थे, तभी लोकान्तिक देव पाये। उन्होंने भगवान की वन्दना स्तुति की गौर उनके विचारों की सराहना की। भगवान ने अपने पुत्र अनन्तविजय को राज्य-भार सौंप दिया और देवोपनीत सागरदत्त । पाल विराजमान होकर सहेतुक वन में गये। वहाँ वेला का नियम लेकर ज्येष्ठ कृष्णा द्वादशी के दिन सायंकाल के समय एक हजार राजामों के साथ दीक्षित हो गये। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया, उन्होंने सायिक संयम धारण कर लिया और ध्यानलीन हो गये। दो दिन पश्चात वे भाहार के लिये साकेतपुरी में पधारे। यहां
SR No.090192
Book TitleJain Dharma ka Prachin Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalbhadra Jain
PublisherGajendra Publication Delhi
Publication Year
Total Pages412
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, & Story
File Size15 MB
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