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________________ [ ८७ ऐ बेटी सुमति ! सुन, पलासकूट नामक नगर में दिविलह नामक ग्रामपति रहता था। उसकी भार्या सुमती और पुत्री धनश्री रूप यौवन सम्पन्न थी । *** श्री जिनगुणसम्पत्ति व्रत कथा ************************ एक समय धनश्री पांच सात सखियोंको लेकर वनक्रीडाके लिये नगरके उद्यानमें गई, जहांपर एक वृक्षके नीचे समाधिगुप्त नामके मुनिराज ध्यान रहे थे तो मुनिराजको देखकर निन्दायुक्त वचन कहने लगी और घृणाकर मुनिराजके ऊपर कुत्ते छोड़ दिये, इससे मुनिराजको बड़ा उपसर्ग हुआ, परंतु ये धीरवीर जिनगुरु अपने ध्यानसे किंचित्मात्र भी च्युत न हुए। किन्तु इस महापापके कारण वह धनश्री मरकर सिंहनी हुई और सिंहनी मरकर तू धनहीन दरिद्रता नारी उत्पन्न हुई है। सो कोई मूढ नरनारी श्री गुरुको उपसर्ग करते हैं, ये ऐसी ही कथा इससे भी नीच गतिको प्राप्त होते हैं। सुमति सेठानी अपने पूर्व भवांतर सुनकर बहुत दुःखी और पश्चाताप करके रोने लगी | पश्चात् कुछ धैर्य हुई धरकर हाथ जोडकर पूछने लगी- हे स्वामी! मेरा यह महापाप किस प्रकार छूटेगा ? तब भगवान ने कहा कि यदि तू सम्यग्दर्शनपूर्वक जिनगुण सम्पत्ति व्रत पालन करे तो तेरा दुःख दूर होकर मनवांछित कार्य सिद्ध होगा। इस व्रतकी विधि इस प्रकार है कि प्रथम ही सोलहकारण भावनाएं जो तीर्थकर प्रकृतिके आश्रयका कारण है, उनके १६. पंचपरमेष्ठिके पांच अष्ट प्रातिहार्यके आठ और ३४ अतिशयोंके ३४, इस प्रकार कुल ६३ उपवास या प्रोषध करे । और इन उपवासके P
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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