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________________ श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ****************** इस प्रकार जब सब लोग पिहलाश्रय स्वामीके निकट पहुँचे तो मन, वचन, कायसे भक्तिपूर्वक भगवानकी यन्दना पूजा की, और फिर एकाग्र चित्त कर धर्मोपदेश सुननेके लिये बैठ गये। स्वामीने देवपूजा, गुरुसेवा, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन गृहस्थके षट्कर्मोका उपदेश किया। पश्चात् अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य (स्वदार संतोष) और परिग्रहप्रमाण इन पंचाणुव्रतों तथा इनके रक्षक ४ शिक्षाव्रत और ३ गुणव्रत इन सात शीलोंको ऐसे बारह व्रतोंका उपदेश किया और सबसे प्रथम कर्तव्य सम्यग्दर्शनका स्वरूप समझाया। ८६] ***** इस प्रकार उपदेश सुनकर नरनारी अपने अपने स्थानको पीछे लौटे। तब सुमति सेठानी जो अत्यन्त दरिद्रतासे पीडित थी, अवसर पाकर श्री भगवानसे अपने दुःखकी यार्ता कहने लगी हे स्वामी! दीनबन्धु, दयासागर भगवान! मैं अबला दरिद्रतासे पीड़ित हो नीतांत व्याकुल हुई कष्ट पा रही हूँ। कौन कारणसे सम्पत्ति (लक्ष्मी) मुझसे दूर रहती हैं और वर कैसे मुझसे मिले, जिससे मेरा दुःख दूर होकर मेरी प्रवृत्ति दान पूजादि रूप हो । किसी कविने ठीक ही कहा है-'भूखे पेट न भक्ति होय धर्मा धर्म न सूझे कोय।' इसी कहावतके अनुसार अब सब लोग धर्मोपदेश सुन रहे थे, तब वह दरिद्र सुमति सेठानी अपने दारिद्रय रूपी तत्त्वके विचारमें ही निमग्न थी जो कि अवसर मिलते ही झटसे कह सुनाया। स्वामीने जिनकी दृष्टिमें राजा और रंक समान हैं। उस सेठानीसे चित्तको और प्रसन्न करने वाले शब्दोंमें इस प्रकार समझाया
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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