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________________ ७८ ] ** श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ***** १६ श्री जिनरात्रि व्रत कथा वदूं ऋषभ जिनेन्द्र पद, माथ नाय हित हेत । कथा कहूँ जिनरात्रि व्रत्, अजर अमर पद देत ॥ *** जब तीसरे कालका अन्य आया, तब क्रमसे कर्मभूमि प्रगट हुई और कल्पवृक्ष भी मन्द पड गये, ऐसे समयमें भोगभूमिके भोले जीव भूख प्यास आदि प्रकारके दुःखोंसे पीड़ित होने लगे। तब कर्मभूमिकी रितियां बतलाने वाले १४ कुलकर (मनु) उत्पन्न हुए। उन्हीं में से १४ वें मनु श्री नाभिराज हुए। नाभिराजके मरुदेवी नाम शुभलक्षणा रानी थी। इसके पूर्व पुण्योदयसे तीर्थकर पदधारी पुत्र ऋषभनाथका जन्म हुआ। ये ऋषभनाथ प्रथम तीर्थकर थे, इसीसे इन्हें आदिनाथ भी कहते हैं। · आदिनाथने नन्दा सुनन्दा नामकी दो स्त्रियोंसे ब्याह किया और उनसे भरत बाहुबली आदि १०१ पुत्र तथा ब्राह्मी और सुन्दरी दो कन्यायें हुई । सो ये कन्याएं कुमार कालही में दीक्षा लेकर तप करने लगी। इस प्रकार ऋषभदेवने बहुत काल तक राज्य किया। जब आयुका केवल चौरासीवां भाग अर्थात् १ लाख पूर्व शेष रह गया, तय इन्द्रने प्रभुको वैराग्य निमित्त लगाया । अर्थात् एक नीलांजना 'नामकी अप्सरा जिसकी आयु अल्प समय (कुछ मिनिटों ) ही रह गई थी, प्रभुके सन्मुख नृत्य करनेको भेज दी। सो नृत्य करते करते अप्सरा वहांसे विलुप्त हो गई और उसी क्षण उसी पलमें वैसी अप्सरा ही आकर नृत्य करने लगी ।
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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