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________________ श्री निःशल्य अष्टमी व्रत कथा ********************** [ ७३ इस प्रकार इस श्रेष्ठि कन्याने विधि सुनकर यह व्रत धारण किया और विधियुक्त पालन भी किया, श्रावकके बारह व्रत अंगीकार किये तथा सम्यग्दर्शन जो कि सब व्रतों और धर्मोका मूल है, धारण किया। व्रत पूर्ण होने पर उद्यापन किया और अन्त समयमें शीलश्री आर्यिकाके उपदेशसे चार प्रकारके आहारोंका त्याग तथा आर्त, रौद्र भावोंको छोड़कर समाधिमरण किया सो सोलहवें स्वर्गमें देवी हुई। * यहां पर पचपन पल्य (५५) एक नाना प्रकार सुख भोगे और आयु पूर्ण कर वहांसे चयी सो यह भीष्म राजाके यहां रूक्मिणी नामकी कन्या हुई है। अब अनुक्रमसे स्त्रीलिंग छेदकर परमपदको प्राप्त करेगी । इस प्रकार रानी रूक्मिणी अपने भवांतर सुनकर संसार देह भोग से विरक्त हो सहर्ष राजमतीके निकट गयी और दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगी। सो वह अन्त समय सन्यास मरण कर स्वर्गमें देय हुई। यहांसे आकर मनुष्य भव ले मोक्ष जावेगी इस प्रकार रूक्मिणीने व्रतके फलसे अपने पूर्वभवोंके समस्त पापोंको नाशकर उत्तम पद प्राप्त किया और जो भव्य जीव श्रद्धा सहित इस व्रतको पालेंगे, ये इसी प्रकार उत्तमोत्तम सुखोंको प्राप्त करेंगे। निःशल्यऽष्टमी व्रत थकी, लक्ष्मीमती त्रिय सार । सकल पापको नाशकर, पायो सुख अधिकार ।। AM M
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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