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________________ .. - ७२] - - . - . श्री जैनवत-कथासंग्रह ******************************** एक समय इसी नगरक्त नरें नंद मुनि पधारे! सय लोग मुनिके वन्दनाको गये। राजा आदि सभी जनोने स्तुति वन्दना कर धर्मोपदेश सुना। पश्चात् नन्द श्रेष्ठिने पूछा-हे प्रभो! यह मेरी कन्या उत्तम रूपवान होकर भी अशुभ लक्षणोंसे युक्त है जिससे सभी इसकी निन्दा करते हैं। तब श्री गुरुने कहा कि इसने पूर्व जन्ममें मुनिकी निंदा की थी जिससे भैंस, सूकरी, कूकरी, धीयरी आदि हुई। धीवरीके भयमें मुनिके उपदेशसे पंचाणु प्रत धारण करके सन्याससे मरी तो तेरे घर पुत्री हुई। अभी इसके पूर्ण असाता कर्मका बिलकुल सय न होनेसे, ही ऐसी अवस्था हुई है सो यदि यह सम्यकपूर्वक नि:शल्य अष्टमी व्रत पाले तो नि:संदेह इस पापसे छूट जायेगी। इस व्रतकी विधि इस प्रकार है___ भादो सुदी अष्टमीको चारों प्रकारके आहारोंका त्याग करके श्री जिनालयमें जाकर प्रत्येक पहरमें अभिषेक पूर्वक पूजन करे। त्रिकाल सामायिक और रात्रिको जिन भजन करते हुए जागरण करे, पक्षात् नवमीको अभिषेकपूर्वक पूजन करके अतिथियोंको भोजन कराकर आप पारणा करे। चार प्रकारके संघको औषधि, शास्त्र, अभय और आहार दान देवे। __ इस प्रकार यह व्रत सोलह वर्ष तक करके उद्यापन करे सोलह सोलह उपकरण मंदिरों में भेंट चढाये, अभिषेकपूर्वक विधान पूजन करे। कमसे कम सोलह श्रापकको मिष्ठान भोजन प्रेमयुक्त हो कसये, दु:खिल भुखितोंको कराणायुक्त दान देये और धारो प्रकारके संधर्भ यास्सल्यभाव प्रकट करें। यदि उद्यापनकी शक्ति न होवे सो दूना व्रत करें।
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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