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________________ ४६ ] ** श्री जैनव्रत-कथासग्रह ** *** ७ अक्षय (फल) दशमी व्रत कथा ॐकार हृदयं धरूं सरस्वतिको शिरनाय । अक्षयदशमी व्रत कथा, भाषा कहूँ बनाये ॥१॥ इसी राजगृही नगरमें मेघनाद नामके राजाकी रानी पृथ्वीदेवी अत्यन्त रूप और शीलवान थी, परंतु कोई पूर्व पापके उदयसे पुत्रविहीन होनेसे सदा दुःखी रहती थी। एक दिन अति आतुर हो यह कहने लगी हे भर्तार ! क्या कभी मैं कुलमण्डन स्वरूप बालकको अपनी गोद में खिलाऊंगी? क्या कभी ऐसा शुभोदय होगा कि जब मैं पुत्रवती कहाऊंगी। अहा ! देखो, संसारमें स्त्रियोंको पुत्रकी कितनी अभिलाषा होती है? ये इस ही इच्छासे दिनरात व्याकुल रहती अनेकों उपचार करती और कितनी ही तो (जिन्हें धर्मका ज्ञान नहीं है) अपना कुलाचरण भी छोडकर धर्म तकसे गिर जाती हैं। यह सुनकर राजाने रानीसे कहा- प्रिये! चिन्ता न करो, पुण्यके उदयसे सब कुछ होता है। हम लोगोंने पूर्व जन्मोंमें कोई ऐसा ही कर्म किया होगा कि जिसके कारण निःसंतान हो रहे है। इस प्रकार के राजा शनी परस्पर धैर्य बन्धाते कालक्षेप करते थे। एक दिन उनके शुभोदयसे श्री शुभंकर नाम मुनिराजका शुभागमन हुआ, सो राजा रानी उनके दर्शनार्थ गये। उनकी वन्दना करनेके अनन्तर धर्म श्रवण करके राजाने पूछा हे प्रभु! आप त्रिकाल ज्ञानी है, आपको सब पदार्थ दर्पणव्रत प्रतिभाषित होते हैं, सो कृपाकर यह बताईये कि किस कारणसे मेरे घर पुत्र नहीं होता हैं? तब श्री गुरुने भवांतरकी कथा
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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