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________________ श्री मकट सशमी व्रत कथा ******************************** तब श्री ऋषिराज बोले-इसी नगरमें धनदत्त नामक एक सेठ था, उनके जिनवती नामकी एक कन्या थी और यहीं एक माली की यनमती कन्या भी थी सो इन दोनों कन्याओंने मुनिके द्वारा धर्मोपदेश सुनकर मुकुटससमी व्रत ग्रहण किया था। एक समय ये दोनों कन्याएं उधानमे खेल रही थी, (मनोरंजन कर रही थीं) किइन्हें सर्पने काट खाया सो नवकार मंत्रका आराधन करके देवी हुयीं और वहांसे चयकर सुम्हारी पुत्री हुई है। सो इनका यह स्नेह भवांतरसे चला आ रहा हैं। इस प्रकार भयांतरकी कथा सुनकर दोनों कन्याओंने प्रथम प्रावकके पंच अणुव्रत, तीन गुणग्रत और चार शिक्षाद्रत इस प्रकार बारह व्रत लिये, और पुनः मुकुटसप्तमी व्रत धारण किया। सो प्रतिवर्ष श्रावण सुदी सप्तमीको प्रोषध करती और — ॐ ह्रीं वृषभतीर्थकरेग्यो नमः इस मंत्रका जाप्य करती, तथा अष्टद्रव्यसे श्री जिनालयमें जाकर भाव सहित जिनेन्दकी पूजा करती थी। इस प्रकार यह व्रत उन्होंने सात वर्ष तक विधिपूर्वक किया पश्चात् विधिपूर्वक उद्यापन करके सात सात उपकरण जिनालयमें भेट किये। इस प्रकार उन्होंने ग्रत पूर्ण किया और अंतमें समाधिमरण करके सोलवें स्वर्गमें स्त्रीलिंग छेदकर इन्द्र और प्रतिन्द्र हुई। वहां पर देवोचित सुख भोगे और धर्मध्यानमें विशेष समय बिताया। पश्चात् वहांसे चयकर ये दोनों इन्द्र प्रत्येन्द्र मनुष्य होकर कर्म काटके मोक्ष जावेंगे। इस प्रकार सेठजी तथा माली की कन्याओंने व्रत (मुकुटसप्तमी) पालकर स्वर्गाके अपूर्व सुख भोगे। अब यहांसे चयकर मनुष्य ही मोक्ष जावेंगे। धन्य है! जो और भय्य जीय, भाव सहित यह व्रत धारण करे, तो वे भी इसी प्रकार सुखोंको प्राप्त होयेंगे। श्रेष्ठी अरु माली सूता, मुकुटसप्तमी व्रत धार। भये इन्द्र प्रतिन्द्र द्वय, अरु हुई हैं भव पार ।।
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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