SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पीठिका ******************************** है परंतु उसके आसपासके चिह्न देखनेसे प्रकट होता है कि किसी समय यह नगर अवश्य ही बहुत उन्नत होगा। आजसे ढाई हजार वर्ष पहिले अंतिम चौबीसवें तीर्थकर श्री वर्द्धमान स्वामीक समयमें इस नगरमें महामण्डलेश्वर महाराजा श्रेणिक राज्य करते थे। वह राजा बडा प्रतापी, न्यायी और प्रजापालक था। यह अपनी कुमार अवस्थामें पूर्वोपार्जित कर्मक उदयसे अपने पिता द्वारा देशमें निकाला गया था और भ्रमण करते हुए एक बौद्ध साधुके उपदेशसे बौद्धमतको स्वीकार कर चुका था। यह बहुत कालतक बौद्ध मतावलम्बी रहा। जब यह श्रेणिककुमार निज बाहु तथा बुद्धिबलसे विदेशोंमें भ्रमण करके बहुत विभूति य ऐश्वर्य सहित स्वदेशको लौटा तो यहांके निवासियोंने इन्हें अपना राजा बनाना स्वीकार किया। इस समय इनके पिता उपश्रेणिक राजाका स्वर्गवास हो चुका था, और इनके एक भाई चिलात नामके अपने पिता द्वारा प्रदत्त राज्य करते थे। इनके राज्य-कार्यमें अनभिज्ञ होने तथा, प्रजा पर अत्याचार करने के कारण प्रजा अप्रसन्न हो गई थी, इसीसे सब प्रजाने मिलकर राज्यच्युत कर दिया था। ठीक है, राजा प्रजाफर अत्याचार नहीं कर सकता। वह एक प्रकारसे प्रजाका रक्षक (नौकर) ही होता है, क्योंकि प्रजाके द्वारा द्रव्य मिलता है, अर्थात् उसकी जीविका प्रजाके आश्रित हैं, इसलिये यह प्रजापर नीतिपूर्वक शासन कर सकता है न कि स्वेच्छाचारी होकर अन्याय कर सकता है। उसका कर्तव्य है कि वह प्रजाकी भलाई के लिये सतत पयत्न करे, तथा उसकी यथासाध्य रक्षा व उन्नतिका उपाय करता रहै, तभी वह राजा कहलानेके योग्य हो सकता हैं।
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy