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________________ श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******* ** **** इस मनुष्य क्षेत्रके मध्य जो जम्बूद्वीप है, उसके बीचोंबीच सुदर्शन मेरु नामका स्तम्भाकार एक लाख योजन ऊंचा पर्वत _है। इस पर्वत पर सोलह अकृत्रिम जिन मंदिर हैं। यह वही पर्वत है कि जिसपर भगवानका जन्माभिषेक इन्द्रादि देवों द्वारा किया जाता है। इसके सिवाय ६ पर्वत और भी दण्डाकार (भीतके समान) इस द्वीपमें हैं, जिनके कारण यह द्वीप सात क्षेत्रोंमें बंट गया है। यह पर्वत सुदर्शनमेरुके उत्तर और दक्षिण की दिशामें आडे पूर्व पश्चिम तक समुदसे मिले हुए हैं। इन सात क्षेत्रों में से दक्षिणकी ओरसे सबके अन्तके क्षेत्रको भरतक्षेत्र कहते हैं। ६] **** इस भरतक्षेत्रमें भी बीचमें विजयार्द्ध पर्वत पड़ जानेसे यह दो भागोंमें बंट जाता है और उत्तरकी ओर जो हिमवत् पर्वत पर पद्मद्रह है। उससे गंगा और सिन्धु दों महा नदियां निकलकर विजयार्द्ध पर्वतको भेदती हुई पूर्व और पश्चिमसे बहती हुई दक्षिण समुद्रमें मिलती हैं। इससे भरत क्षेत्रके छः खण्ड हो जाते हैं, इन छ: खण्डोंमेंसे सबसे दक्षिणके बीच वाला खण्ड आर्य खण्ड कहलाता है और शेष ५ म्लेच्छ खण्ड कहलाते हैं। इसी आर्य खण्डमें तीर्थकर तीर्थंकरादि महापुरुष उत्पन्न होते हैं । यही आर्यखण्ड कहाता है। इस आर्यखण्ड में मगध नामका एक प्रदेश है, जिसे आजकल बिहार प्रांत कहते हैं। इसी मगधदेशमें राजगृही नामकी एक बहुत मनोहर नगरी है और इन नगरीके समीप विपुलाचल, उदयाचल आदि पंच पहाडियां हैं तथा पहाड़ियोंके नीचे कितनेक उष्ण जलके कुण्ड बने हैं। इन पहाडियों व झरनोंके कारण नगरीकी शोभा विशेष बढ़ गई है। यद्यपि कालदोषसे अब यह नगर उजाड़ हो रहा
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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