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________________ १०४] श्री जैनव्रत-कथासंग्रह ******************************** सो वह राजा अपने स्थानको जानेमें असमर्थ हुआ | उद्यानमें भ्रमण करता था कि सौभागगरे नसे नि परमगुरुका अचानक दर्शन हो गया। राजा श्रीगुरुको देखकर गद्गद् होकर विनयसहित नमस्कार कर पूछने लगा-हे प्रभु! मैं मन्दभागी विद्या-विहीन हुआ भटक रहा हूँ। कृपा करके मुझे कोई ऐसा यल बताइये कि जिसमे मैं पुन: विधा प्राप्त कर स्वस्थान तक जा सकू। यह सुनकर श्री गुरुने कहा-हे भद्र धर्मके प्रसादसे सय काम स्वयमेव सिद्ध होते हैं। कहा है-धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्याण। धर्म पन्थ साधे विना, नर तिर्यंच समान इसलिये तू सम्यक्त्व सहित 'गरुडपंचमी व्रत को पालन कर इससे धरणेन्द्र व पद्मावती प्रसन्न होकर तेरी मनोकामना पूरी करेंगे। देखो इसका फल इस प्रकार है मालय देशमें चिंच नामका एक ग्राम है यहां नागगौड़ नामी एक मनुष्य रहता था। उसकी स्त्रीका नाम कमलायती था। उसके महाबल, परबल, सम, सोम और भोम ऐसे ५ पुत्र और चारित्रमती नामकी एक कन्या थी। नागगौड़ने अपनी चारित्रमती कन्याको ग्रामके धनदत्त गौड़के पुत्र मनोरमणके साथ व्याह दी। ये दोनों नवदम्पति सुखसे रहने लगे। कितनेक दिन पश्चात् इनके शांति नामका एक बालक हुआ, फिर एक दिन सुगुप्त नामके मुनि चर्या (भिक्षा) के हेतु नगरमें पधारे उन्हें देखकर चारित्रमतीको अत्यानन्द हुआ और उन्हें भक्तिपूर्वक पडगाह कर प्रासुक भोजनपान कराया। ___ मुनिराजने भोजनके अनन्तर 'अक्षयनिधि' यह शब्द कहे इतने ही में एक आदमीने आकर चारित्रमतिको उसके पिताके
SR No.090191
Book TitleJainvrat Katha Sangrah
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeepchand Varni
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year
Total Pages157
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size2 MB
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