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"आलस्वहीन, श्रमलीन मनुज, आबद्ध-वृत्ति, सक्रिय मनुज । हो जाता आत्मजयी अहंतु, यदि स्वस्थ चित्त से रहे मनुज ।"
(वही, पृ. 220 )
श्रमणसाधना चित्त की शुद्धता और एकाग्रता के महत्त्व को स्पष्ट करती है । (2) वर्द्धमान का साधना पथ-बर्द्धमान की साधना का पथ अत्यन्त कठोर था। वह पीड़ा से विचलित नहीं होते थे। सदैव कर्तव्यशील, सहनशील और निर्लिप्त भाव में रहते थे।
"पाप-पुण्य दोनों की सीमा, उनको बाँध न पाती थी ।
कठिन साधना करते रहकर, देह नहीं थक पाती थी।" (वही, पृ. 230 ) प्रभु करुणा सागर ने अपनी पीड़ा का कभी खयाल नहीं किया। पर पीड़ा को दूर करने के लिए जीवन समर्पित किया।
सप्तम सोपान - भगवान महावीर को केवलज्ञान प्राप्ति
(1) साधना की चरम स्थिति-भ
-भगवान महावीर की ध्यान-साधना अब चरम
उत्कर्ष पर पहुँची ।
( 2 ) लक्ष्य के निकट - वर्द्धमान ऋजुबालिका नदी के तट पर जृम्भक नामक ग्राम में विहार करने गये। कठोर साधना के परिणामस्वरूप वर्द्धमान भगवान महावीर
बने ।
( 3 ) केवलज्ञान की उपलब्धि - वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की दसवीं तिथि
“केवलज्ञान हुआ उपलब्ध 'वीर' को तत्क्षण ।
संसृति का हर जीव, उन्हें था वन्दन करता ।" (वही,
पू. 287) भगवान महावीर वीतरागी एवं केवलज्ञानी बने। अतः वे सर्वत्र चन्दनीय रहे । अष्टम सोपान - भगवान महावीर के उपदेश का प्रभाव
(1) ग्यारह गणधर - भगवान महावीर के समवसरण में इन्द्रभूति गौतम, अग्निभूति, वायुभूति आदि ग्यारह गणधर पहुँचे। प्रभु के दर्शन से उनकी सभी शंकाएँ निर्मूल हो गयीं । समस्त पण्डितों का गर्व नाश हुआ और उन्होंने मुनिदीक्षा ग्रहण की। महावीर के शिष्य बने । प्रभु की सर्वज्ञता की महिमा जानकर वैदिक ब्राह्मण गणधरों ने जैनसाधना में दीक्षा ग्रहण की।
( 2 ) चन्दनबाला का संयम ग्रहण- भगवान के समवसरण में चन्दनबाला भी साधना करने के लिए संयमपूर्वक दीक्षा लेने आयी थी। महावीर ने उसे साधना - पथ में दीक्षित करके उसे संघप्रमुख बनाया ।
आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में वर्णित महावीर चरित्र :: 89