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प्रथम अध्याय भगवान महावीर की जीवनी के स्रोत
तीर्थंकर-परम्परा जैनधर्म में मान्य तीर्थंकरों का अस्तित्व वैदिक काल के पूर्व भी विद्यमान था। इतिहास इस परम्परा के मूल तक अभी तक नहीं पहुँच सका है। उपलब्ध पुरातत्त्व सम्बन्धी तथ्यों के निष्पक्ष विश्लेषण से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि तीर्थंकरों की परम्परा अनादिकालीन है। वैदिक वाङ्मय में वात-रशना मुनियों, केशीमुनि और व्रात्य क्षत्रियों के उल्लेख आये हैं, जिनसे स्पष्ट है कि पुरुषार्थ पर विश्वास रखनेवाले धर्म के प्रगतिशील व्याख्याता तीर्थंकर प्रागैतिहासिक काल में भी विद्यमान थे। मोहन-जो-दड़ो के खंडहरों से प्राप्त योगीश्वर ऋषभ की कायोत्सर्ग मुद्रा इसका जीवन्त प्रमाण है। यहाँ से उपलब्ध पुरातत्त्वसम्बन्धी सामग्री भी तीर्थकर-परम्परा की पुष्टि करती है। आचार्य विद्यानन्दजी के अनुसार वैदिक 'पद्मपुराण में तीर्थंकर का उल्लेख प्राप्त है। कहा है
"अस्मिन्वै भारते वर्षे, जन्म वै श्रावके कुले। तपसा युक्तमात्मानं केशोत्पाटन पूर्वकम् ॥ तीर्थकराश्चतुर्विंशत्तथातैस्तु पुरस्कृतम्।
छायाकृतं फणीन्द्रेण ध्यानमात्र प्रदेशिकम् ॥ जो तीर्थ का कर्ता या निर्माता है, वह तीर्थकर कहलाता है। 'तीर्थ' का अभिधागत अर्थ घाट, सेतु या गुरु है और लाक्षणिक अर्थ धर्म है। श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविका इस चतुर्विध संघ को भी 'तीर्थ' कहा गया है। इस तीर्थ की जो स्थापना करते हैं उन विशिष्ट व्यक्तियों को तीर्थकर कहते हैं। भारतवर्ष में चौबीस तीर्थंकर क्षत्रिय कुल में उत्पन्न हुए। उन्होंने केशलुंचनपूर्वक निर्विकल्प समाधि में लीन रहकर तपस्या कर निर्ग्रन्थ पद को पुरस्कृत किया था।
चौबीस तीर्थकरों के नाम इस प्रकार हैं1, ऋषभनाथ, 2, अजितनाथ, ३. सम्भवनाथ,
1. विद्यानन्दमुनि : तीर्थकर वर्तमान, पृ. 3
भगवान महावीर को जीवनी के स्रोत :: ।।