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अन्तिम समय में से पुनः पावापुरी में आये और कार्तिक कृष्णचतुर्दशी की रात के अन्तिम प्रहर में कर्म- बन्धन से मुक्त होकर उन्होंने विक्रमीय संवत् पूर्व 470 में सिद्ध पद प्राप्त किया।
निष्कर्ष
'बर्द्धमान' महाकाव्य जिस उद्देश्य और दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने के लिए लिखा गया है, उत्तमें कवि अनूप की सफलता प्राप्त हुई है। कवि अनूप का उद्देश्य है - वर्द्धमान के चरित्र का यथार्थ चित्रण कर उनके द्वारा प्रवर्तित जैन धर्म के सिद्धान्तों का निरूपण करना । उद्देश्य का निर्वाह करते समय कवि ने काल्पनिकता को प्रधानता दी हैं। प्रस्तुत महाकाव्य में दिगम्बर सम्प्रदाय और श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यताओं के अनुसार भगवान महावीर की चरित्र सम्बन्धी घटनाओं, प्रसंगों, गर्भान्तर, विवाह, दीक्षा, तपश्चर्या आदि में समन्वित दृष्टिकोण अपनाकर चरित्र चित्रण किया है | भगवान महावीर के उपदेशों के सन्दर्भ में दिगम्बर, श्वेताम्बर मत में भिन्नता नहीं है, लेकिन उपदेशों की चिन्तनधारा में ब्राह्मण विचारधारा से भिन्नता होते हुए भी महाकवि अनूप ने उसमें भी समन्वयवादी दृष्टि से प्रतिपादन कर भगवान महावीर की प्रतिमा विश्वमानवतावादी, सर्वोदयवादी के रूप में उभारने का प्रयास किया है।
'वर्द्धमान' महाकाव्य, परम्परागत लौकिक स्थूल दृष्टि से एक शिथिल रचना कही जा सकती है। और यह भी कहा जा सकता है कि उसमें जीवन को द्वन्द्वातीत, चरित्र के घात-प्रतिघात से मुक्त और एकांगी जीवन दृष्टि को ही व्यक्त किया गया हैं। लेकिन आध्यात्मिक दृष्टि से 'वर्द्धमान' महाकाव्य में भगवान महावीर के जीवन में प्रवृत्ति एवं निवृत्ति के बीच महान् संघर्ष का इतिहास है। समस्त विकारों पर विजय पाने के लिए मनुष्य को व्रत, संघम, अपरिग्रह, तप, ध्यान आदि सहित कठोर साधना करनी पड़ती है। भगवान महावीर पलायनवादी नहीं थे। वे मानवी दुःखों के कारणों को समूल नष्ट करने में प्रवृत्त हुए थे, और उन्होंने शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए प्रत्यक्ष आचरण के द्वारा मार्ग बताया। साधना में अनेक घात-प्रतिघातों, द्वन्द्वों का सामना करना पड़ता है। अतः सूक्ष्म दृष्टि से भगवान महावीर का चरित्र एकांगी न होकर सर्वांग परिपूर्ण प्रतीत होता है।
यह मानना पड़ेगा कि 'बर्द्धमान' महाकाव्य की भाषा दुरूह, संस्कृतनिष्ठ, दुर्बोध है। भाषा शैली को दृष्टि से महाकाव्यात्मक सौन्दर्य का अभाव है। फिर भी मुमुक्षुओं की दृष्टि से आत्मव्यक्तित्व का चरम विकास करने के लिए एक सफल कलाकृति है ।
'तीर्थंकर भगवान महावीर' महाकाव्य
सन् 1959 में कवि वीरेन्द्रप्रसाद जैन प्रणीत 'तीर्थकर भगवान महावीर' महाकाव्य का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ। छह वर्ष के अन्तराल पर यत्किंचित् परिवर्धन के आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में वर्णित महावीर चरित्र :: 35