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के जीवन चरित्र कवियों ने लिखे हैं। इन पौराणिक काव्यों का स्त्रोत आगम साहित्य है। इनमें धर्मोपदेश, कर्मफल, अवान्तर कथाएं, स्तुति, दर्शन, काव्य और संस्कृति को समाहित किया है। ये सभी काव्य शान्त रस से युक्त हैं। इनमें महाकाव्य के प्रायः तभी लक्षण घटित होते हैं । लोकतत्त्वों का भी समावेश इनमें है। 'पउमचरिय' पौराणिक महाकाव्यों में प्राचीनतम कृति है। जैनाचाचों ने ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर कतिपय प्राकृत महाकाव्य लिखे हैं। हेमचन्द्रसूरि का महाकाव्य चालुक्यवंशीय कुमारपाल महाराजा के चरित का ऐसा ही ऐतिहासिक चरित काव्य है ।
पौराणिक और ऐतिहासिक महाकाव्य साहित्य शान्तरस प्रधान रहा। फिर भी इनमें लोकतत्त्वों का समावेश अभिन्न रूप में रहा है। प्राचीन प्राकृत भाषा और उसके आगम साहित्य के सर्वेक्षण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने उसकी हर विधा को समृद्ध किया है। प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति का हर क्षेत्र प्राकृत आगम साहित्य का ऋणी है। क्योंकि लोकभाषा और लोकजीवन को अंगीकार कर उनकी समस्याओं के समाधान की दिशा में आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत किया। आधुनिक साहित्य के लिए भी यह आगम साहित्य उपजीव्य बना हुआ है। संस्कृत चरितकाच्य के प्रेरक प्राकृत आगम ग्रन्थ ही हैं।
'षट्खण्डागम' में भगवान महावीर के सर्वज्ञ और परमात्मा बनने के विधिविधान का सुन्दर चित्रण किया गया है। प्रस्तुत आगम ग्रन्थ के छह खण्ड हैं, अतः उसे 'पट्खण्डागम' कहा जाता है। भूतबली ने 'महाबन्ध' नामक खण्ड पर तीस हजार श्लोकप्रमाण रचना की जिसे 'महाधवल' भी कहते हैं। बारह अंगों के बारह उपांग माने जाते हैं। उनका निर्माण उत्तरकालीन है । 'मूलसूत्र' में जीवन के आचारविषयक मूलभूत नियमों का उपदेश है। श्रमण-धर्म के आचार-विचार को समझाने की दृष्टि से छेदसूत्रों का विशेष महत्त्व है। चूलिकाएँ ग्रन्थ के परिशिष्ट के रूप में मानी गयी हैं । आगमिक शब्दों की व्याख्या के लिए आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) ने नियुक्तियों का निर्माण किया है। प्रकीर्णकों में तीर्थंकरों के द्वारा दिये गये उपदेशों की आचार्यों ने व्याख्या की है। आगम को और स्पष्ट करने के लिए टीका साहित्य लिखा गया है 1 कथासाहित्य का मुख्य उद्देश्य कर्म, दर्शन, संयम, तप, चारित्र, दान आदि का महत्त्व स्पष्ट करना रहा है।
जैन आगम साहित्य के आचार्य, कवि
जैन आगम ग्रन्थों के सभी आचार्यों ने गौतम गणधर द्वारा ग्रन्धित श्रुत का ही विवेचन किया है। विषयवस्तु वही रही है, जिसका निरूपण तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि द्वारा हुआ है। विभिन्न समयों में जैन साहित्य उत्पन्न होने के कारण इन आचार्यों में केवल द्रव्य, क्षेत्र और भाव के अनुसार अभिव्यक्ति की पद्धति में भिन्नता प्राप्त होती है। तथ्य समान होते हुए भी कथन करने की प्रक्रिया
भगवान महावीर की जीवनी के स्रोत : 29