SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ E मिध्या मत का प्रचार करते हुए मरकर सोलहवें जन्म में माहेन्द्र स्वर्ग का देव हुआ । राजगृही के विश्वभूति राजा के पुत्र विश्वनन्दि की पर्याांच में चरित्रनायक का जीव अवतरित हुआ । चचेरे भाई विशाखनन्दि से उद्यान पाने के हेतु युद्ध किया । वैराग्य भाव से मुनि दीक्षा ग्रहण की। मुनि वेष में भी चचेरे भाई विशाखनन्दि को मार डालने का निदान किया। परिणामस्वरूप निदान शल्य सहित मरकर तप के प्रभाव से महाशुक्र नाम के स्वर्ग में देव हुआ। अनुपम व्रत प्राप्त करके भी उनका पूरा लाभ वह नहीं ले सका | देव आयु के पूर्ण होने पर वह भरत क्षेत्र में उन्नीसवें भव में 'त्रिपृष्ठ ' नाम का प्रथम नारायण हुआ, और उसका भाई विशाखनन्दि अश्वग्रीव नाम का प्रतिनारायण हुआ । विश्वनन्दि तथा विशाखनन्दि दोनों चचेरे भाइयों के जीव इस भव में त्रिपृष्ठ वासुदेव नारायण और प्रतिनारायण 'अश्वग्रीव' के रूप में अवतरित हुए। पूर्वभव के भाव के संस्कार से एक स्त्री का निमित्त पाकर दोनों में घमासान युद्ध हुआ। और त्रिपृष्ट ने अश्वग्रीव को मारकर एकछत्र त्रिखण्ड राज्यसुख भोगा । आयु के अन्त में मरकर बीसवें भव में 'त्रिपृष्ठ' का जीव सातवें नरक का नारकी हुआ । सिंह भव और नारकी भव-चरित्रनायक के इक्कीसवें जन्म में, " वह जीव सिंह गिरि पर जन्मा, जीवों का वध करनेवाला । पापों को संचित करता था, वह शेर प्राण हरनेवाला । फल मिला मर गया शर खाकर, जैसी करनी वैसी भरनी । सागरपर्यन्त नरक में रह, हँसते रोते भोगी करनी ।" ( वीरायन, पृ. 141 ) वह निर्दय सिंह वहाँ से मरकर पुनः नरक में गया और असंख्य वर्षों तक वहाँ के तीव्र दुख भोगने लगा। चरित्रनायक का जीव नरक से निकलकर एक बलवान सिंह हुआ। दसवें भव में जो तीर्थकर होनेवाला है, ऐसा वह सिंह भरत क्षेत्र के एक पर्वत पर रहता था । क्रूरता से वह वन्य पशुओं को खाता था। भाग्यवश दो चारण मुनियों ने विहार करते हुए उत्त सिंह को देखकर कहा- हे भव्य जीव, तूने जो त्रिपृष्ठ नारायण के भव में राज्यासक्ति से घोर पाप उपार्जन किया, उसके फल से नरकों में घोर यातनाएँ सही हैं। और अब भी तू इस मृगजय से दीन प्राणियों को मार-मारकर घोर पाप कर रहा है। मुनिराज के वचन सुनकर सिंह को जाति-स्मरण हो गया और वह अपने पूर्व भवों को याद करके, आँखों से आँसू बहाते हुए निश्चल खड़ा रहा। चारण्य मुनियों के उपदेश को सिंह ने शान्तिपूर्वक सुना और तीन प्रदक्षिणा देकर उनके चरणों में अपना सिर रखकर बैठ गया । मुनिराज ने उसे पशु मारने और मांत खाने का त्याग कराया और उसे उसके योग्य श्रावक व्रतों का उपदेश दिया। सिंह की प्रवृत्ति एकदम बदल 114 :: हिन्दी के महाकाय में चित्रित भगवान महावीर
SR No.090189
Book TitleHindi ke Mahakavyo me chitrit Bhagavana Mahavira
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushma Gunvant Rote
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year
Total Pages154
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy