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या भील-जन्म से अब तक का, हर जन्म उन्हें तत्काल दिखा।" (परमज्याति महावीर, पृ. 3240)
तैंतीसभव
पुरुरवा भील-तीर्थंकर भगवान बनने की मंगल साधना का आरम्भ भील पुरुरवा के जीवन से प्रारम्भ होता है। पुरुरवा को झाड़ियों के झुरमुट में शान्त मुद्रा स्थित कोई शिकार दिखाई दिया। उसका वध करने के लिए उसने धनुष-बाण उठाया। उसकी पत्नी कालिका ने बाण चलाने से रोका, क्योंकि वह देखती है कि वह कोई शिकार न होकर शान्त मुद्राधारी मुनि है। पुरुरवा ने उन ध्यानस्थ मुनि की वन्दना की। मुनिराज ने उसे अहिंसा का उपदेश दिया। उपदेश से प्रभावित होकर भीलराज ने अहिंसा आदि अणुव्रतों को धारण किया। परिणामस्वरूप वह मृत्यु के बाद स्वर्ग में देव हआ। इस प्रकार महावीर की जीवात्मा ने आत्म-उत्थान की साधना भील पर्याय से प्रारम्भ की।
सौधर्म स्वर्ग में देव-अहिंसा व्रत का पालन करके भील से देव हुए उस जीव को सौधर्म स्वर्ग में अनेक दिव्य ऋद्धियाँ प्राप्त हुई और दो सागरोपम वर्ष तक उसने पुण्य फल का उपभोग किया। अहिंसा के पालन से एक भील जैसे अज्ञानी को भी स्वर्ग-सुख प्राप्त हुआ। स्वर्ग में उसे अवधिज्ञान था, परन्तु आत्मज्ञान का अभाव था। आयु पूर्ण होने पर स्वर्ग से चयकर मनुष्य लोक में अवतरित हुआ।
ऋषभदेव का पौत्र मरीचिकुमार-स्वर्ग में पूर्व संस्कार से पुरुरवा भील का जीव वहाँ के भोगों में आसक्त नहीं हुआ। फलस्वरूप भारत वर्ष में प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत के यहाँ अनन्तमती रानी के गर्भ से मरीचि के रूप में जन्म लिया। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की दीक्षा के समय गुरुभक्ति से प्रेरित होकर मरीचि ने दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। किन्तु श्रमण जीवन की कठोर साधना से उसका मन विचलित हो गया। इसीलिए उसने श्रमण-साधना के कठोर नियमों में परिवर्तन कर लिया। वह सुविधावादी परिव्राजक बन गया।
भगवान ऋषमनाथ के समवसरण में मरीचि के पिता भरत ने भगवान से पूछा-हमारे कुल में आप तीर्थंकर हुए। आप जैसा तीर्थकर होनेवाला दूसरा कोई उत्तम पुरुष इस समय कौन है? तो प्रभु की दिव्य-ध्वनि में उत्तर मिला कि हे भरत, तुम्हारा पुत्र मरीचिकुमार इस भरत क्षेत्र में चौबीसवाँ अन्तिम तीर्थकर (महावीर) होगा। प्रभु की वाणी में अपने तीर्थकर होने की बात सुनकर उस मरीचि ने सम्यक्त्व का अनुसरण न करते हुए मिय्याल्व को अपनाया। मुनिवेश छोड़कर भ्रष्ट हुए मरीचि ने तापस का वेश धारण किया और सांख्य मत का प्रचार किया। उस मूर्ख जीव ने मिट्या मार्ग के धारण से अपनी आत्मा को अनेक भवों तक घोर संसार-दुःखों में डुबोया । मरीदि का यह भव भगवान महावीर के ज्ञात पूर्व भयों की दृष्टि से तीसग भव है। यद्यपि मरीचि 112 :: हिन्दी के महाकायों में चित्रित भगवान महावीर