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________________ *************** ग्रंथकार का कथन है कि जैनशास्त्र पूर्वापरविरोध से रहित है। जिनमें सर्वज्ञता नहीं हैं, जिनको तत्त्वज्ञान नहीं हुआ है, जो अज्ञानतिमिराछन हैं, जो राग, द्वेष, मोह के द्वारा ग्रसित हैं, ऐसे कुमत के प्रवर्तकों के द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों में परस्पर विरुद्ध अनेक मान्यतायें हैं। आचार्य समन्तभद्र ऐसे मतावलम्बियों को स्वपरवैरी कहते हैं। बौद्धों 'के मतानुसार आत्मा क्षणिक है, फिर भी वे प्रव्रज्यादि अनुष्ठानों को व भवभवान्तर को स्वीकार करते हैं। एक बार सुगत भिक्षार्थ जा रहे थे, उनके पैर में काँटा गड़ गया। उससमय उन्होंने कहा कि इत एकनवते कल्पे शक्त्या मे पुरुषो हतः । तत्कर्मणो विपाकेन पादे विद्धोऽस्मि भिक्षवः । । 'अर्थात् हे भिक्षुओ ! आज से इक्यानवें कल्प में मैने शक्ति ( छुरी) से एक पुरुष का वध किया था। उसी कर्म के विशक से आज मेरे पैरों में काँटा लगा है। जब आत्मा क्षणिक है, तो इक्यानवें भव किसने लिये ? नहीं है, तो फिर क्षणिकवाद का मानना कहाँ तक उचित है ? सांख्य मतानुयायी द्रव्य को नित्य मानते हैं। जब आत्मा नित्य है, तो पापी नित्य पापी व पुण्यात्मा नित्य पुण्यात्मा रहेगा । संसारी नित्य . संसारी और सिद्ध नित्य सिद्ध ही रहेगें। यदि ऐसा है तो पापियों का उद्धार व ईश्वर का अवतार ये जो दो मान्यताएँ उनमें हैं, वे सिद्ध नहीं होती। यदि उन दो बातों को स्वीकार किया जायेगा, तो नित्यत्व बाधित हो जायेगा ! ३. चार्वाक मतानुयायी आत्मसत्ता को अस्वीकार करते हैं। आश्चर्य तो यह है कि वे सदाचार के उपदेश देते हैं। जब परभव है ही नहीं, तो फिर सदाचार के उपदेश का प्रयोजन क्या रहा? इस प्रश्न पर वे अनुत्तरित हो जाते हैं। ऐसे अनेकों मत व उनकी परस्पर विरुद्ध मान्यताएँ हैं, जिन्हें गंध का आकार बढ़ने के भय से नहीं कहा जाता है। इस विषय को जानने के इच्छुक लोग धर्मपरीक्षा, आप्तपरीक्षा, अष्टसहस्त्री आदि ग्रंथों का स्वाध्याय करें। जैनागम पूर्व और अपर के विरोध से रहित है, अतः वही प्रपंच *************** ६७*
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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