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******** शारिश ******** * अर्थ : मन्त्रवाक्यों का चिन्तन करना पदस्थध्यान है। स्वात्मचिन्तन * * पिण्डस्थध्यान है। सर्वचिद्रूप का ध्यान रूपस्थध्यान है तथा निरंजन सिद्धों *
का ध्यान रूपातीतध्यान है। * संक्षिप्तरूप से इतना ही लिखना पर्याप्त है कि यह ग्रंथ ज्ञानार्णव * -प्रवेशिका के समान अथवा योगशास्त्ररूपी ताले को उद्घाटित करने के * * लिए कुंजी के समान है। * आकर्षक व्यक्तित्व के धनी, बहु-आयामी विषयों के ज्ञाता. लेखनी
के जादूगर, पूज्यपाद गुरुदेव ने इस ग्रंथ का हिन्दी अनुवाद करके ग्रंथ के * महत्त्व को और अधिक विस्तृत किया है। अन्य आगम के प्रमाणों से जहाँ * आपने अपनी टीका को प्रामाणिक बनाया है, वहीं अनेक शंकाओं को * *उपस्थित करके तथा उनका समाधान करके ग्रंथ को भव्यजनोपयोगी * बनाया है। A आचार्यपरम्परा पर आपको कितनी भक्ति है। आः आचार्यों की
वाणी का एक अक्षर भी असत्य नहीं मानते। आप लिखते हैं - * आचार्य तीर्थकर वाणी के प्रसारक, अनेकान्त प्रेमी तथा पापभीर * होते हैं। कहीं जिनवाणी की प्ररूपणा में स्खलन न हो जाय, इसके लिए * *वे सतत सजग रहते हैं। अतः उनके वचनों को तीर्थकर की वाणी के * * समान सत्यतत्त्वप्ररूपक मानना चाहिये। श्लोक ३३ का भावार्थ) TH जब आप किसी आचार्य के मन्तव्य को समझाते हैं, तो ऐसा ही. * जैसे मानों स्वयं वे आचार्य देव समझा रहे हो। आचार्य श्री कुन्दकुन्द्रदेव * पुण्य को स्वर्णश्रृंखला कहते हैं. तो आचार्य श्री गुणभद्र पुण्य करने की * * प्रेरणा देते हैं। क्या यह परस्पर विरुद्ध उपदेश नहीं है ? आपने समझायाA समस्त उपदेश प्रासंगिक होते हैं। अतः स्वरूप के अध्येता को
तत्त्वमर्यादा जान लेनी चाहिये। * आप ही बताइए कि किसी नेत्ररोगी के नेत्रों का ऑपरेशन किया * गया. डॉक्टर ने उसे हरी पट्टी लगाने की सलाह दी।टांके टूटने पर जब * * डॉक्टर ने हरी पट्टी उतारने के लिए कहा और रोगी इस बात पर अड* * जाये कि आपने ही हरी पट्टी लगाने को कहा था, अब आप अपने वचनों *
से क्यों पलट रहे हो ? तो क्या यह उचित है? * जब कोई बालक पहली बार विद्यालय में जाता है. तो गुरुजी *********** **********