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******** शालांकुशा ********
ग्रंथ परिचय आचार्य श्री योगीन्द्रदेव का यह लघुकाय ग्रंथ है। ग्रंथकर्ता के विषय में निर्णयपूर्वक कह पाना असम्भव है कि वे कब हुए ? अथवा उनकी
और कौन-कौन सी कृतियाँ हैं ? परन्तु यह निश्चित है कि सरलशैली, * विषय के प्रति प्रामाणिकता, जैनाजन ग्रथों का अध्ययन आदि के कारण * * यह ग्रंथ लघुकाय होते हुए भी भव्यजीवों का महान उपकार करने वाला* १ है। ग्रंथ का प्रतिपाद्य विषय ध्यान है।
ध्यान की परिभाषा करते हुए स्वयं ग्रंथकार लिखते हैं - ध्यानं स्थिरमनश्चैव :- मन का स्थिर होना ध्यान है।
मन अत्यन्त चंचल है। एकाएक उसकी गति पर रोक लगाना * * संभव नहीं है। ध्यान की प्राप्ति के लिए क्या करें ? ग्रंथकर्ता ने ध्यान के *
हेतु बताये हैं, जिनके सहयोग से मन की चंचलता का निरोध सम्भव * है।यथा* : वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं, नैपँथ्यं समभावना। * जयः परीषहाणां च, पञ्चैते ध्यानहेतवः ।।४२||
अर्थ : वैराग्य, निर्ग्रथता, तत्त्वविज्ञान, समभावना और परीषहजय ये पाँच * ध्यान के हेतु है। * अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन भी मनोसंयम का प्रधान हेतु है। अनुप्रेक्षा * * बारह हैं। ग्रंथकर्ता ने अन्यत्व, अशुचित्व एवं एकत्व इन तीन अनुप्रेक्षाओं * * का वर्णन किया है। ध्यान के चार भेद हैं, आर्त, रौद्र, धर्म,शुक्ल। प्रथम *
दो ध्यान अशुभ होने से हेय है तथा बाद के दो ध्यान मोक्ष के कारण होने
स ( परे मोक्षहेतू ) वे उपादेय हैं। इसलिए ग्रंथकार लिखते हैं :. . * आर्त्तरौद्रं परित्यज्य, धर्मशुक्लं समाचरेत् ।। ४१11 *
धर्मध्यान के ४ भेद हैं। उनका प्रतिपादन करते हुए ग्रंथकार ने लिखा है :
पदस्थं मन्त्रवाक्यस्थं, पिण्डस्थं स्वात्मचिन्तनम् ।
रूपस्थं सर्वचिद्रूपं. रूपातीतं निरञ्जनम् ||१४|| ********** **********
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