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________________ ******** ********* * ध्यान ही सच्ची माता है, जो चैतन्य गुण को परिपुष्ट करती है। ध्यान के द्वारा जीव अपनी आत्मशक्ति को भौतिक भावनाओं से स्वतंत्र कर लेते हैं। ध्यान चेतना की ऐसी अन्तर्यात्रा है, जो परिधि से केन्द्र की ओर प्रतिक्रमण है। ध्यान ही स्वर्गापवर्ग की वांछित संपत्ति देने वाला कल्पतरु * है। ध्यान मोक्षफल का प्रदाता है। * ध्यान के महाफल का निरूपण करते हुए आचार्य श्री शुभचन्द्र * ने लिखा है - ध्यानमेवापवर्गस्य मुख्यमेकं निबन्धनम् । तदेव दुरितवातगुरुकक्षहुताशनः ।। (झानार्णव - २३/७) * * अर्थान् : मोक्ष का मुख्य कारण ध्यान ही है। वहीं ध्यान पापसमूह रूपी तवनको भस्म करसो के लिए आँगन के समान है । * आचार्य श्री शिवकोटि ने ध्यान का फल विस्तार से बताया है। वे लिखते हैं -- जैसे गर्भगृह वायु से रक्षा करता है, वैसे ही ध्यान कषाय रूपी वायु के लिए गर्भगृह है। जैसे धूप से बचने के लिए छाया है, वैसे * ही कषायरूपी घाम से बचने के लिए ध्यान छाया के समान है। जैसे दाह * को नष्ट करने के लिए सरोवर उत्तम है, वैसे ही कषायरूपी दाह को नष्ट * करने के लिए ध्यान उत्तम सरोवर है। जैसे शीत के बचाव के लिए आग है. वैसे कषायरूपी शीत के बचाव के लिए ध्यान आग के समान है। जैसे वैद्य पुरुष के रोगों की चिकित्सा में कुशल होता है, वैसे ही ध्यान कषाय * रूपी रोग की चिकित्सा करने में कुशल वैद्य है। जैसे अन्न भूख को शान्त * करता है. वैसे ही विषयों की भूख दूर करने के लिए ध्यान अन्न के समान *है तथा जैसे प्यास लगने पर पानी उसे दूर करता है, वैसे ही विषयरूपी* प्यास को दूर करने के लिए ध्यान पानी के समान है। अपने सहज स्वभाव का अनुभव ध्यान के द्वारा किया जा सकता है। ध्यान के द्वारा * सच्चा संयम प्राप्त होता है। संयम के द्वारा ही जीव समस्त कर्मों का * * विनाश करता है। अतः ग्रंथकार ने ध्यान का फल कर्मनिर्जरा बताया है। * इस प्रकार सत्य स्थिति को जानकर प्रत्येक भव्य जीव को आत्मकल्याण * * कर लेना चाहिये । ********** **********
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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