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________________ ******* शालांकुशा ******** * का जाल ये जीव बुन रहे हैं। इससे उन्हें दुःख ही होता है। म एक का अर्थ है, असहाय। संसार में परिभ्रमण करने वाले का कोई सहारा नहीं है। यह बात अलग है कि वह सहारा प्राप्त करने की * कामना कर रहा है । जैसे निद्रा समाप्त होकर आँखें खुलते ही सपना * टूट जाता है। स्वप्नों में दृश्य पदार्थ असत्य हो जाते हैं, उसीप्रकार जब * सदज्ञान के कारण मोहनिद्रा टूट जाती हैं, तब वे कल्पनायें निःसार हो * * जाती हैं। शंका : सांसारिक परिजनों तथा पदार्थों को भले ही अपने नहीं माने जाये, परन्तु संसारसमुद्र से पार करने वाले देव, शास्त्र, गुरु को तो *अपना मानना पड़ेगा। * समाधान : नहीं, ऐसा कहना अनुचित है। नाद का सहयोग लेकर समुद्र *पार होना अलग बात है और नाच को ही तारणहार समझना अलग * है। देव, शास्त्र, गुरु भी परद्रव्य हैं। व्यावहारिक दृष्टि से उनको निमित्त । बनाकर यां, हम अपना मोक्षमार्ग प्रशस्त कर लेते हैं, तथापि आत्मस्वभाव से अत्यन्त भिन्न होने के कारण वे भी परद्रव्य हैं। परद्रव्य को अपना * मानने का तिल के बराबर भाव भी मोक्ष का बाधक है। * अनेकान्तदृष्टि से विचार करने पर स्पष्ट ज्ञात होता है कि * प्राथमिक शिष्ट्य देव, शास्त्र, गुरु के सहयोग से मोक्षमार्ग में प्रवेश करता है परन्तु अन्ततोगत्वा वह उनका भी सहयोग तजकर एकाकी आत्मतत्त्व का आश्रय लेता है। मोक्ष के लिए शुद्धोपयोग की दृष्टि से आत्मा देव, * शास्त्र, गुरु से भी विविक्त है। * एकत्व भावना का चिन्तन करने के पाँच फल हैं। यथा . *१. प्रतिकूलता में समताभाव की उपलब्धि होती है। २. अनुकूलता में अहंकार नहीं जगता। ३. एकाग्रता बढ़ती है। ४. परपदार्थों में ममत्वभाव उत्पन्न नहीं होता। *५. स्वभाव में रहने की प्रेरणा मिलती है। *६. ध्यान की सिद्धि होती है। अतः मुमुक्षु जीवों को सतत एकत्वभावना का चिन्तन करते हुए अपने परिणामों को वैराग्यमयी बनाना चाहिये। **********१०२********** ************************************
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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