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________________ ******** ज्ञानाश ******** एकत्वभावना ********************************** एकः करोति कर्माणि, भुंक्ते चैकोऽपि तत्फलम् । * एकोऽपि जायते नूनमेको याति भवान्तरम् ॥३७॥ * * अन्वयार्थ : *(एकः) अकेला (कर्माणि) कर्मों को (करोति) करता है (च) और (एक:)* * एक अपि) ही सत्) उत्त (फलाम पाल को मुंका भोगता है। नूनम्)* * निश्चय से (एकः) अकेला (अपि) ही रजायते) जन्म लेता है। (एकः) * अकेला ही (भवान्तरम्) भवान्तर को (याति) जाता है। * अर्थ : यह जीव अकेला ही कर्मों को करता है तथा उसके फल को * * अकेला ही भोगता है। यह जीव अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही भवान्तर को जाता है। भावार्थ : प्रतिसमय आत्मा को ऐसा विचार करना चाहिये कि एगो मे सस्सदो अप्पा, णाणदंसणलक्खणो, सेसा मे बाहिरा भावा, सम्धे, संजोगलक्खणा।। अर्थात् : मेरा आत्मा एक है तथा शाश्वत है। वह ज्ञान और दर्शन लक्षण वाला है। शेष जितने भी संयोग लक्षण वाले भाव हैं, वे मेरे से भिन्न हैं। आत्मा का स्वभाव मृण्मय नहीं. चिन्मय है। वह चिन्मूर्ति * अकेला है। उसके अलावा सम्पूर्ण जीवद्रव्य तथा पुदगल, धर्म, अधर्म, * * आकाश और काल ये पाँच अजीवद्रव्य उससे पर हैं। अनन्त गुण और * पर्यायों के भेदों को मिटाकर अखण्ड बना वह आत्मद्रव्य अकेला है। ज्ञान और दर्शन ये दो उसके लक्षण हैं। * अहो! आश्चर्य है कि ज्ञान के नेत्र मूंदे हुए हैं जिसके. ऐसा * मूढात्मा अपने सत्यस्वरूप से अपरिचित हो जाने के कारण परद्रव्य * * आत्मरूप है, ऐसी आत्मघाती कल्पना करता है। कौन है किसका ? * संसार के नाटक का मंचम संयोग और वियोग नामक दो निर्देशक कर * रहे हैं। उस नाटक में अटक कर यह सत्य है, ऐसी भ्रमभरी कल्पनाओं **********१०१********** **************** *************
SR No.090187
Book TitleGyanankusham
Original Sutra AuthorYogindudev
AuthorPurnachandra Jain, Rushabhchand Jain
PublisherBharatkumar Indarchand Papdiwal
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size3 MB
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