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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
भावार्थ - सामान्यविशेषात्मक वस्तु में जिस समय विशेष को गौण करके केवल सामान्य की विवक्षा होती है अथवा सामान्य को गौण करके केवल विशेष की विवक्षा होती है, उस समय विपक्ष की विवक्षान करके केवल सामान्य या केवल विशेष की अपेक्षा से वस्तु के अस्तित्व का जो निरूपण करने में आता है, वह व्यवहार अन्तर्गत नयों में से 'अस्ति-नय' का विषय है।
नास्ति च तदिह विशेषैः सामान्यस्य विवक्षिताया वा ।
सामान्यैरितरस्य च गौणत्वे सति भवति नास्तिजयः ॥ ७५७॥ अर्थ - वस्तु सामान्य की विवक्षा में विशेष धर्म की गौणता होते विशेष रूप से नहीं है अथवा विशेष की विवक्षा में सामान्य धर्म की गौणता होते सामान्य रूप से नहीं है यह 'नास्तिनय' है।
भावार्थ - वस्तु सामान्यांवशेषात्मक है। इसलिये जिस समय सामान्य की विवक्षा होती है, उस समय विशेष धर्म की गौणता होने से वह वस्त विशेष की अपेक्षा से नहीं हैं तथा जिस समय विशेष की विवक्षा होती है, उस समय सामान्य धर्म की गौणताहोने से वह वस्तु सामान्य की अपेक्षा से नहीं है। इस प्रकार जो कथन करने में आता है, उस व्यवहार अन्तर्गत नयों में से 'नास्ति नय' का विषय कहते हैं।
द्रव्यार्थिकनयपक्षादस्ति न तत्त्वं स्तरूपलोऽपि ततः ।
न च नास्ति पररूपात् सर्वविकल्पालिगं यतो वस्तु ॥ ७५८ ॥ अर्थ - द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से वस्तु स्वरूप से अस्ति रूप है यह नहीं है तथा वस्तु पररूप से नहीं है - यह भी नहीं है क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सब विकल्पों से रहित ही वस्तु का स्वरूप है। वह तो अखण्ड है।
भावार्थ - शुद्ध द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से वस्तु न स्वरूप से अस्ति रूप है तथा न पर रूप से नास्ति रूप ही है कारण कि इस नय की अपेक्षा से वस्तु निर्विकल्प-अखण्ड अनिर्वचनीय मानी है क्योंकि दोनों में प्रदेश भेद तो है ही नहीं।
यदिदं नास्ति स्वरूपाभावाटस्ति स्वरूपसदभावात् ।
सवाच्यात्ययरचितं वाच्यं सर्व प्रमाणपक्षस्य ॥७५९ ॥ __ अर्थ - जो वस्तु स्वरूपाभाव से ( पर स्वरूप के अभाव की अपेक्षा से) नास्ति रूप है और जो स्वरूप सद्भाव से अस्ति रूप है, वह वस्तु विकल्पातीत ( अनिर्वचनीय-अखण्ड ) है। यह सब प्रमाण पक्ष है।
भावार्थ - वस्तु पर्यायार्थिक नय से अस्तिरूप अथवा नास्तिरूप द्रव्यार्थिक नय से विकल्पातीत तथा प्रमाण से अस्ति-नास्ति अवक्तव्य सब रूप अविरुद्ध रीति से है।
भावार्थ ७५६ से ७५९ तक - सत् विशेष्य है। स्वरूप से अस्ति, पर रूप से नास्ति उसके विशेषण हैं। अतः ये दो व्यवहार नय हैं। "नेति" सब विकल्पों से रहित-अनिर्वचनीय द्रव्यार्थिक नय है। जो व्यवहार से अस्ति तथा नास्ति रूप है और जो निश्चय से अवक्तव्य है, वही प्रमाण से अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य सब रूप है। इस प्रकार चारों श्लोक इकट्ठे हैं।
इस अधिकार में जो सत् को स्व (सामान्य) के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से अस्ति (सत्) और पर (विशेष) के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा से नास्ति ( असत् ) तथा विशेष के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से अस्ति
और सामान्य के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव से नास्ति सिद्ध किया है। उस पर इन चार पद्यों द्वारा नय प्रमाण घटित करके दिखलाये हैं। अस्ति नय को सत् नय और नास्ति नय को असत् नय भी श्री समयसार आदि आगमों में कहा है। दोनों नाम पर्यायवाची हैं।
नोट - इस अधिकार की प्रश्नावली अन्त में दी है।