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________________ ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी दूसरा अवान्तर अधिकार आवश्यक सूचना - ग्रंथकार की यह पद्धति है कि पहले एक बात को 'अस्ति' से निरूपण करते हैं फिर उसी को 'नास्ति' से निरूपण करते हैं अथवा यूं कहिये कि पहले अम्बय से निरूपण करके फिर व्यतिरेकरूप से ऊहापोह करते हैं अथवा यूं भी कह सकते हैं कि पहले जैनधर्म का निरूपण करके फिर अन्यमतों का खण्डन करते हैं। किन्तु इस तत्-अतत् के निरूपण में पहले ३०९ से ३२५ तक 'नास्ति 'से निरूपण किया है अथवा व्यतिरेक रूप से ऊहापोह किया है अथवा अन्य सिद्धांत का खण्डन किया है और फिर ३२६ से ३३५ तक 'अस्ति से निरूपण किया है अथवा अन्बय रूप से सिद्धान्त का निरूपण किया है। सो ध्यान रहे। यहाँ पहले 'नास्ति' फिर अस्ति। तत्-अतत् का रहस्य - द्रव्य जैसे स्वतः सिद्ध है वैसे ही वह स्वतः परिणामी भी है। अत: वह स्थित रहता हुआ बदला करता है। इस स्थित रहने को नित्य और परिगान करतो अनियोजिप्तता निकरण आगे नित्यानित्य अधिकार में होगा। वह जो परिणमन के कारण प्रति समय "परिणाम" उत्पन्न होता है उस परिणाम में सदृश और विसदृश दो धर्म अवश्य रहते हैं। सदृशता के कारण यह बोध होता है कि "यह वही है" और विसदृश्यता के कारण यह बोध होता है। ''यह वह नहीं है अन्य ही है"। द्रव्य दृष्टि से यह वह है ऐसा ही प्रतीत होता है और पर्याय दृष्टि से यह वह नहीं है दूसरा ही है ऐसा ही प्रतीत होता है। यह वही है इसको 'तत्' कहते हैं, यह वह नहीं है दूसरा ही है इसको अतत् कहते हैं। जैसे मनुष्य से मरकर देव हुआ। यह वही है यह तत् है। यह दूसरा ही है यह अतत् है। कई बार नित्य-अनित्य और तत्-अतत् में अन्तर न सूझने के कारण एक जैसा प्रतीत होने लगता है किन्तु ऐसा नहीं है। नित्य उसके स्वतः सिद्ध स्वभाव को बताता है और अनित्य धर्म उसके परिणमन को बताता है। किन्तु तत्-अतत् तो यह बताता है कि परिणमन के कारण जो प्रति समय का परिणाम उत्पन्न होता है वह परिणाम सदृश्य दोनों धर्मों को लिये हुये है। सदृश्यता के कारण यह वही है ऐसा भान होता है और विसदृश्यता के कारण यह वह नहीं है दूसरा ही है ऐसा प्रतीत होता है। वह परिणाम सर्वथा सदृश ही हो या विसदृश ही हो ऐसा नहीं है। एक बात और ध्यान रहे। अतत् दृष्टि से वह द्रव्य ही दूसरा है ऐसा जैनधर्म का कहना है। तत् का द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव त्रिकाल एक रूप है और अतत् का द्रव्य-क्षेत्र-काल भाव प्रति समय का भिन्न-भिन्न है। तत्-अतत् भी अन्य तीन युगलों की तरह सापेक्षता से रहते हैं निरपेक्ष नहीं। तत् को भाव और अतत् को अभाव भी कहते हैं। सदश-असदृश्य भी कहते हैं। तीनों पर्यायवाची हैं। तत्-अतत् का निरूपण ३०१ से ३२५ तक नास्ति से शंका ननु सदिति स्थायि यथा सदिति तथा सर्वकालसमयेषु । तत्र विवक्षितसमये तत्स्यादथवा न तदिदमिति चेत् ॥३०९।। शंका - सदा सत् धुवरूप से रहता है, इसलिये वह सम्पूर्ण काल के सभी समयों में रहता है। फिर आप (जैन) यह क्यों कहते हैं कि वह सत् विवक्षित समय में ही है अविवक्षित समय में वह नहीं है? समाधान सत्यं तनोत्तरमिति सन्मानापेक्षया तदेवेदम । न तदेवेदं नियमात् सदवस्थापेक्षया पुन: सदिति ॥३१०॥ अर्थ - आचार्य कहते हैं कि ठीक है। आप की शंका का उत्तर यह है कि सत्ता मात्र की अपेक्षा से तो सत् वही है और सत् की अवस्थाओं की अपेक्षा से सत् वह नहीं है। दूसरा ही है। ननु तदतदोर्द्धयोरिह जित्यानित्यत्वयोर्द्वयोरेव । को भेदो भवति मिथो लक्षणलक्ष्यैकभेदभिन्जत्वात् ॥ ३११॥ शंका - तत् और अतत् इन दोनों में तथा नित्य और अनित्य इन दोनों में परस्पर में क्या भेद है क्योंकि दोनों का एक ही लक्षण है और एक ही लक्ष्य है?
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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