SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 92
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी से देखना हो तो परिणामन से तो है- जीव परिणमन से नहीं है। उसी प्रकार जब जीव परिणमन से देखें तो जीव परिणमन से तो है पर परिणमन मात्र से नहीं है। संदृष्टिः पटपरिणतिमा कालायतस्तकालतया । अस्ति च तातन्माचान्नास्ति पटस्तन्तुशुक्लरूपतया ॥ २७८॥ अर्थ - उदाहरणार्थ पट रूप जो सामान्य परिणमन है वह काल सामान्य की अपेक्षा से पट का स्वकाल है, इसलिये इतने मात्र की अपेक्षा से तो वह है परन्तु वही पट तन्तु और शुक्ल रूप विशेष परिणमन ( पर काल) की अपेक्षा से नहीं है। भावार्थ- अखंडकपड़े के परिणमन की दृष्टि महासत्ता और उसके भेद परिणमन, अंश परिणमन दष्टि अवान्तर सत्ता। जैसे धोती का परिणमन, सफेद परिणमन, इत्यादि। मुख्य अस्ति गौण नास्ति। भाव से अस्ति-नास्ति ( २७९ से २८३ तक) भात: परिणामः किल स चैत तत्त्वस्वरूपनिष्पत्तिः । अथवा शक्तिसमूहो यदि वा सर्वस्तसारः स्यात् ॥ २७९ ॥ अर्थ- भाव नाम परिणमन का है। तत्त्व का जो स्वरूप है वही उसका भाव है। अथवा शक्तियों के समूह का नाम भी भाव है, अथवा भाव से पदार्थ के सर्वस्वसार का ग्रहण किया जाता है। स विभक्तो द्विविधः स्यात्सामान्यात्मा विशेषरूपश्च । तत्र विवक्ष्यो मुख्य: स्यात्स्वभावोऽथ गुणोहि परभावः || २८० ॥ भी सामान्यात्मक और विशेषात्मक ऐसे दो भेदवाला है। उन दोनों में जो भाव विवक्षित होता है वह मुख्य हो जाता है। अत: यह स्य-भात दहानसा है और को अविवावित होता है वह गौण हो जाता है। अतः वह पर-भाव कहलाता है। भावार्थ- किसी भी द्रव्य के जबतक भाव (गुण) पर दृष्टि है तबतक वह महासत्ता रूप सामान्य भाव है क्योंकि भाव-भाव-भाव से भिन्नता नहीं आती। जहाँ आपकी यह दृष्टि हुई कि जीव भाव (जीव का गुण) या ज्ञान भाव या स्पर्श भाव या अनन्त भाव या एक भाव तो समझ लो कि भाव की अपेक्षा अवान्तर सत्ता हो गई। भावरूप से देखना महासत्ता और भाव को किसी भी विशेषण सहित देखना-भेद भाव से देखना अवान्तर सत्ता जिस रूप से देखोगे वह मुख्य,शेष गौण। मुख्य को अस्ति गौण को नास्ति कहते हैं । यह भाव से अस्ति-नास्ति है। यह ध्यान रहे कि भाव कहो या सत् कहो, इन दोनों शब्दों का वाच्यार्थ एक अखंड सत् ही है तथा प्रदेश दोनों हालतों में वही है। स्वरूप भी वही है। जैसे जीव को भावरूप देखना महासत्ता, जीवभाव रूप देखना अवान्तर सत्ता। सामान्यं विधिरेव हि शुद्धः प्रतिषेधकश्च निरपेक्षः । प्रतिषेधो हि विशेषः प्रतिबेध्यः सांशकश्च सापेक्षः ॥ २८१॥ अर्थ- इन दोनों भावों में से सामान्य भाव विधिरूपही है। वह शुद्ध है, प्रतिषेधक है और निरपेक्ष है तथा विशेष भाव प्रतिषेध रूप है, प्रतिषेध्य है, अंशसहित है और सापेक्ष है। तत्र विवक्ष्यो भावः केवलमस्ति स्वभावमात्रलया। अविवक्षितपरभावाभावतया नास्ति सममेव ॥ २८२॥ अर्थ- वस्तु के सामान्य और विशेष भावों में से जो भाव विवक्षित होता है, वही केवल वस्तु का स्व-भाव समझा जाता है, और उसी स्व-भाव की अपेक्षा से वस्तु में अस्तित्त्व आता है। परन्तु जो भाव अविवक्षित होता है, वहीं परभाव कहलाता है। जिस समय स्वभाव की विवक्षा की जाती है, उस समय पर-भाव की विवक्षा न होने से उसका वस्तु *श्लोक नं. २८२ से २८८ तक टीकाओं के क्रम में अन्तर है। हमने पूर्वापर विषय का अनुसंधान देखकर क्रम रखा है। ग्रन्थकार ने जिस क्रम से द्रव्य-क्षेत्र-काल में वर्णन पहले किया। उसी क्रम से हमने भाव का कम लिखा है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy