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प्रथम खण्ड/द्वितीय पुस्तक
अपि चावान्तरसत्ता सदद्रव्यं सनगुणश्च पर्यायः ।
सच्चोत्पादध्वसौ सदिति धौध्यं किलेति विस्तारः ।। २६६॥ अर्थ - तथा द्रव्य है', गुजह, पर्याय है, उत्पाद है, व्यय है, धीध्य है। इस प्रकार जितना भी विस्तार है, सत् का परिवार है, वह अवान्तर सत्ता कहलाता है।
भावार्थ - सत् द्रव्य, सत् गुण, सत् पर्याय, सत् उत्पाद, सत् व्यय और सत् धौव्य इस प्रकार विशेषण विशिष्ट सत्ता के विशेष विस्तार को अवान्तर सत्ता कहते हैं अर्थात् अवान्तर सत्ता में अवान्तर शब्द व्याप्य का वाचक है। इसलिये प्रत्येक पदार्थ व उनके गुण तथा पर्यायवती व्याप्यसत्ता को अवान्तर सत्ता कहते हैं।
अयमर्थों वस्तु यदा सटिति महासत्तयातधार्येत ।
स्यात्तटवान्तरसतारूपेणाभाव एव न तु मूलात् ॥ २६७॥ अर्थ - द्रव्य की अपेक्षा स्यात् अस्ति और स्यात् नास्ति का अर्थ यह है कि वस्तु जिस समय महासत्ता की अपेक्षा से कथंचित् है, उस समय अवान्तर सत्ता की अपेक्षा से वह कथंचित् नहीं भी है। वस्तु में अवान्तर सत्ता की अपेक्षा से ही अभाव आता है। वास्तव में अभावात्मक नहीं है।
भावार्थ - जब द्रव्यार्थिक नय से वस्त को देखते हैं तो सारी की सारी वस्त सत रूप ही दष्टिगोचर होती है, उस समय अवान्तर सत्ता रूप वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती। इसी का अर्थ अभाव है। यह अर्थ नहीं है कि अवान्तर सत्ता का स्वरूप ही वस्तु में से नष्ट हो जाता है।
प्रमाण - श्री प्रवचनसार गाथा १७, २८ की टीका। अपि चावान्तरसत्तारूपेण यदावधार्यते वस्तु ।
अपरेण महासत्तारूपेणाभाव एव भवति तदा ॥२६८॥ अर्थ - इसी प्रकार जिस समय अवान्तर सत्ता की अपेक्षा से वस्तु निश्चय की जाती है उस समय उसकी अपेक्षा से तो वह कथंचित् है परन्तु प्रतिपक्षी महासत्ता की अपेक्षा से कथंचित् नहीं भी है।
भावार्थ - वास्तव में वस्तु तो जैसी है, वह वैसी ही है। उस में से न तो कुछ कभी जाता है और न उसमें कुछ कभी आता है। केवल कथन शैली से उसमें भेद हो जाता है। जिस समय वस्तुको महासत्ता की दृष्टि से देखते हैं उस समय वह सत् रूपही दीखती है। उस समय वह कोई विशेष द्रव्य नहीं कही जा सकती, गुण भी नहीं कही जा सकती और पर्याय भी नहीं कही जा सकती। इसलिये उस समय यह कहा जा सकता है कि वस्तु सत् रूप से तो है परन्तु वह द्रव्य, गुण पर्याय आदि रूप से नहीं है। इसी प्रकार जिस समय अवान्तर सत्ता की दृष्टि से वस्तु देखी जाती है उस समय वह द्रव्य पर्याय आदि विशेष सत् रूप से तो है परन्तु सामान्य सत् रूप से नहीं है। इस प्रकार वस्तु में कथंचित् अस्तित्व और कथंचित् नास्तित्व सुघटित होता है। वस्तु में नास्तित्व केवल अपेक्षा दृष्टि से आता है। वास्तव में वस्तु अभाव स्वरूप नहीं है।
दृष्टांत: स्पष्टोऽयं यथा पटो द्रव्यमस्ति नास्तीति ।
पटशुक्लत्तादीनामन्यतमस्याविवक्षितत्वाच्च ॥२६९ ॥ अर्थ - कथंचित् अस्तित्व और कथंचित् नास्तित्व का दृष्टांत भी स्पष्ट ही है कि जिस प्रकार पट (वस्त्र ) द्रव्यपट की अपेक्षा से तो है परन्तु वहीं पट द्रव्यपट के शुक्लादि गुणों की अविवक्षा की अपेक्षा से नहीं है। ___ भावार्थ - शुक्लादि गुणों का समूह ही पट कहलाता है। जिस समय पट को मुख्य रीति से कहते हैं उस समय उसके गुण नहीं के बराबर समझे जाते हैं और जिस समय शुक्लत्वादि गुणों को मुख्य रीति से कहते हैं उस समय पट भी नहीं के बराबर समझा जाता है। कहने की अपेक्षा से ही वस्त में मुख्य और गौण की व्यवस्था होती है तथा उसी व्यवस्था से वस्तु में कथंचित् अस्तिवाद और कथंचित् नास्तिवाद आता है। इसी का नाम स्याद्वाद है। पूर्व श्लोक २६४ के भावार्थ अनुसार जब तक आपकी दृष्टि में पद-पट-पट है तब तक सत्वत् वह पट महासत्ता रूप है। जहाँ यह ख्याल