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________________ ७० पहला अवान्तर अधिकार अस्ति नास्ति युगल २६४ से ३०८ तक द्रव्य से 'अस्ति नास्ति' (२६४ से २६९ तक ) ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी एका हि महासत्ता सत्ता वा स्थादवान्तराख्या च । न पृथक्प्रेदेशवत्वं स्वरूपभेदोऽपि नानयोरेव ॥ २६४ ॥ अर्थ - एक तो महासत्ता है। दूसरी अवान्तर सत्ता है। इस प्रकार यद्यपि सत्ता के दो भेद हैं तथापि इन दोनों सत्ताओं के भिन्न-भिन्न प्रदेश नहीं हैं तथा दोनों में स्वरूप भेद भी नहीं है ( दोनों का एक ही स्वरूप है। केवल अपेक्षाकृत दृष्टि भेद है ) । भावार्थ - यहाँ यह भाव नहीं है कि विश्व के सम्पूर्ण पदार्थों की समुदायात्मक सत्ता को महासत्ता कहते हैं और प्रत्येक पदार्थ की सत्ता को अवान्तर सत्ता कहते हैं। ऐसा अर्थ करने से सम्पूर्ण ग्रंथ का अर्थ गलत हो जायेगा। यहाँ यह भाव है कि जगत का प्रत्येक पदार्थ सामान्यविशेषात्मक है। उसके सामान्य स्वरूप को महासत्ता और विशेष स्वरूप को अवान्तर सत्ता कहते हैं। जो प्रदेश सामान्य स्वरूप अर्थात् महासत्ता का है वही प्रदेश विशेष स्वरूप अर्थात् अवान्तर सत्ता का है। इसलिये दोनों में प्रदेश भेद नहीं हैं। स्वरूप भेद इस प्रकार नहीं है कि वह द्रव्य, द्रव्यदृष्टि से सामान्य स्वरूप रूप दीखता है और वही पदार्थ पर्याय दृष्टि से विशेष रूप दीखता है। ऐसा नहीं है कि जैसे वृक्ष में फल अलग हैं और पत्ते अलग हैं इस प्रकार द्रव्य में महासत्ता भिन्न है और अवान्तर सत्ता भिन्न है । अभेद दृष्टि से वही महासत्ता रूप है और भेद दृष्टि से वही अवान्तर सत्ता रूप हैं। जो सत् सामान्य है वही सत् विशेष जीव है। जैसे किसी एक शुद्ध जीव को अपनी दृष्टि के सामने रखिये। अब जब तक आप उसे जीव न समझ कर केवल सत् मात्र अखण्ड सत् रूप से देखते हैं तब तक उस जीव का नाम सत्-सत्ता- महासत्ता या सामान्य है क्योंकि सत् धर्म उसके सम्पूर्ण विशेष धर्मों को गौण करके उसे केवल वस्तु रूप से दिखा रहा है और जहाँ आपकी दृष्टि सत् से हटकर यह आई कि यह जीव है बस समझ लो कि अब वही पदार्थ महासत्ता रूप न रहकर अवान्तर सत्ता रूप बन गया। इस तरह न तो उसका प्रदेश ही बदला न उसका स्वरूप ही बदला। वह चीज तो जैसी थी, ठीक वैसी की वैसी है और आगे चलिये। आपको यह ख्याल आया कि यह चेतन मेटर है, ज्ञान गुणवाला है तब ज्ञान मुख्य हो गया। तब वही पदार्थ गुण अवान्तर सत्ता रूप नजर आने लगा। प्रदेश वहीं, स्वरूप वही, चीज वही और आगे चलिये आपकी दृष्टि पर्याय पर गई। अब वह आपको सिद्ध पर्याय रूप दीखने लगा। अब वह सारा का सारा पदार्थ पर्याय रूप अवान्तर सत्तामय है। प्रदेश वही, स्वरूप वही, चीज वही। इसी प्रकार उसे उत्पाद रूप देखना, व्यय रूप देखना, धौव्य रूप देखना सब अवान्तर सत्ता है। इस प्रकार एक सत् को केवल अखण्ड सत् रूप देखना महासत्ता और उसे ही द्रव्य रूप, गुण रूप, पर्याय रूप, उत्पाद रूप, व्यय रूप, ध्रौव्य रूप या किसी भी रूप जहाँ तक भेद हो सकता है। भेद रूप देखना अवान्तर सत्ता है। जिस रूप आप देखेंगे वह मुख्य है, दूसरी गौण है। मुख्य को अस्ति कहते हैं। गौण को नास्ति कहते हैं। बस यही द्रव्य से अस्ति नास्ति है । इसी भाव को ग्रन्थाकार ने स्वयं अगले पाँच श्लोकों में स्पष्ट किया है। पूर्व श्लोक १५ से २२ तक पहले भी इस पर प्रकाश डाल चुके हैं। वह भी पुनः पढ़ लें तो बहुत हितकर होगा। - किन्तु सदित्यभिधानं यत्स्यात्सर्वार्थसार्थसंस्पर्श । सामान्य ग्राहकत्वात् प्रोक्ता सन्मात्रतो महासत्ता ॥ २६५ ॥ अर्थं किन्तु जो सत् सम्पूर्ण पदार्थों के समूह को स्पर्श करनेवाला है उसे ही महासत्ता के नाम से कहते हैं। वह सामान्य का ग्रहण करनेवाला है और उसी की अपेक्षा से वस्तु सत्-मात्र है ( अर्थात् महासत्तारूप है ) । भावार्थ- हर एक पदार्थ का अस्तित्व गुण जुदा-जुदा है । उसी अस्तित्व गुण को 'सत्' इस नाम से भी कहते हैं क्योंकि उसी से वस्तु की सत्ता कायम रहती है। वह सत् गुण सामान्य रीति से सब वस्तुओं में एक सरीखा हैं। एक सरीखा होने से उसे एक भी कह देते हैं और उसी का नाम महासत्ता रखते हैं। वास्तव में 'महासत्ता' नामक कोई एक पदार्थ नहीं है। केवल समानता की अपेक्षा से इसको एकत्व संज्ञा मिली है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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