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इन दोनों विषयों के नाम पर पेट नहीं पेटी भरी जा रही है। इस विषय में तो मैं कुछ नहीं कहना चाहता क्योंकि आज का भारतीय नागरिक इससे स्वयम् भुक्तभोगी होकर अच्छी तरह से परिचित है।
किन्तु उनके बारे में क्या कहें कि जो आचार्यों के लिखे शास्त्रों को जिन्होंने अपने नाम का भी संकल्प नहीं रखा आज उन्हीं शास्त्रों की टीकाओं को लिखकर व समाज के पैसे से प्रकाशन कराकर 'सर्वाधिकार सुरक्षित' लेखक के नाम पर कर देते हैं।
इसके अतिरिक्त कई जैन प्रकाशनों की जो घटनाएं सामने आई हैं उनका वर्णन करना भी असंगत नहीं होगा। जो शास्त्र सन् १९७५ में छपे उनका मूल्य १५ रु., २० रु. किन्तु जब उनको १९९० में बेचा गया तो उन शास्त्रों पर मोहर लगा कर क्रमशः ३५ व ४० रु. कर दिये गये। इसके विपरीत कुछ प्रकाशन ऐसे भी हैं जैसे कि मैंने जिनेन्द्र वर्णी प्रकाशन माला का १९६५ में छपा शास्त्र १९९२ में मंगाया जिसका उसमें मूल्य १० रु. लिखा था। उनके नियमानुसार कमीशन काट कर ८ रु. में ही भेजा जो ७८० पृष्ठ का मय अच्छी जिल्द के था।
किन्तु इस विषय में सन् १९९६ में तो अवनति की पराकाष्ठा हो गई। दानदाताओं ने पुण्यार्जन के लिए शास्त्र को छपाकर मात्र 'स्वाध्याय' मूल्य रखा किन्तु २-४ माह बाद ही उन शास्त्रों पर मोहर लगा कर स्वाध्याय मूल्य के स्थान पर २० रु., २५ रु., ६५ रु., ११० रु. आदि की मोहर लगा दी। इसे दानदाताओं के प्रति विश्वासघात के अलावा और क्या कहेंगे। क्योंकि दानदाता तो कुछ बोल नहीं सकता उसे तो शास्त्रदान करना था या ज्ञान दान करना था सो कर दिया। अगला काम कार्यकर्ताओं का है। इस प्रकाशन समिति की दृष्टि में यह घोर निंदनीय कार्य है। हम पाठकगणों को व दानदाताओं को विश्वास दिलाना चाहते हैं कि हम अपने यहाँ से प्रकाशित होने वाले शास्त्रों का न्योछावर मूल्य नाममात्र का ही रखते हैं वह भी इसलिए कि कोई इसका दुरुपयोग न कर सके और जो भी शास्त्र के न्योछावर मूल्य से द्रव्य प्राप्त होता है उसे अगले प्रकाशन में ले लिया जाता है। यही नहीं किन्तु शास्त्रजी को मंदिरों में, विद्वानों को व विशेष संस्थाओं को पूर्ण रूप से निःशुल्क मय पोस्टेज के भेजते हैं।
हम पाठकगणों से भी निवेदन करते हैं कि उक्त कीमत बढ़ाने की मनोवृत्ति की घोर निन्दा करें।
प्रकाशकीय का समापन करते हुए इसका संयोजक होने के नाते यह निवेदन करना उचित समझता हूँ कि मेरी ओर से किसी को किसी भी प्रकार की (मानसिक या अन्य प्रकार की ) कोई वेदना हुई हो जो कि कार्य के करते समय प्रायः हो जाती है तो वे महानुभाव मुझे मन्दबुद्धि समझ कर क्षमा करेंगे। इसे व्यवहार की भाषा न समझें मैं अपने शुद्ध इदय से अपनी गलती स्वीकार करता हूँ। इस अहम् में बहुत बड़ी गलती छुपी हुई है कि यह कार्य मेरे द्वारा हुआ है। कार्य तो अपनी योग्यता से होता है जैसाकि मैंने ऊपर कहा है। मैं अपने सभी साधी कार्यकर्ताओं से निवेदन करता हूँ कि जहाँ उनको यह अनुभव हो कि मुझ में अहम् की प्रवृत्ति आ रही है मुझे सचेत करने का श्रम करने में झिझकें नहीं। यह मेरे ऊपर बड़ा उपकार होगा। __अन्त में , इस प्रकाशन में कोई भी गलती रह गई हो तो उसके लिए मात्र मैं ही जिम्मेदार हूँ। पाठकगण व साथी मुझे क्षमा करते हुए उस गलती के लिए मुझे सूचित करने का श्रम करने की कृपा करें। मैं उनका आभारी होऊँगा। और अगले प्रकाशन में सुधारने का प्रयत्न करूँगा। धन्यवाद।
महावीर प्रसाद ( स्वतन्त्रता सेनानी) संयोजक, श्री दि. जैन साहित्य प्रकाशन समिति ३३२, स्कीम न. १०, अलवर-३०१००१
फोन : ३३१०३८/०१४४