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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
ननु चोत्पादध्वसौ स्यातामन्तर्थतोऽथ वामानात् ।
दृष्टविरुद्धत्वादिह शुवत्वमपि चैकस्य कथमिति चेत् ॥ २२९॥ अर्थ-एक पदार्थ के उत्पाद और ध्वंस भले ही हो परन्त उसी पदार्थ के धौव्य भी होता है, यह बात वचनमात्र है और प्रत्यक्ष बाधित है। एक ही पदार्थ के उत्पाद व्यय और प्रौव्य ये तीनों किस प्रकार हो सकते हैं?
समाधान २३०-२३१ सत्यं भवति विरुद्ध क्षणभेदो यदि भवेत्त्रयाणां हि ।
अथवा स्वयं सदेव हि नश्यत्युत्पद्यते स्वयं सदिति ॥ २३०॥ अर्थ-शंकाकार का उपर्युक्त कहना तभी ठीक हो सकता है अथवा उत्पाद व्यय धौव्य इन तीनों का एक पदार्थ में तभी विरोध आ सकता है जब कि इन तीनों का क्षणभेद हो अथवा यदि स्वयं सत् ही नष्ट होता हो और सतही उत्पन्न होता हो तब भी इन तीनों में विरोध आ सकता है।
ध्यापि कुतश्चित् किश्चित् कस्यापि कथंचनापि तन्न स्यात् । तत्साधकप्रमाणाभावादिह
सोऽप्यदृष्टान्तात् ॥ २३१॥ अर्थ-परन्तु ऐसा कहीं किसी कारण से किसी के किसी प्रकार किञ्चिन्मात्र भी नहीं होता है। उत्पाद भिन्न समय
भिन्न समय में होता हो और धौव्य भिन्न समय में होता हो. इस प्रकार तीनों के क्षणभेद को सिद्ध करने वाला तथा स्वयं सत ही उत्पन्न होता हो, स्वयं सत् ही नष्ट होता हो इसको सिद्ध करने वाला न तो कोई प्रमाण ही है और न कोई उसका साधक दष्टांत ही है।
शंका ननु च स्वानसरे किल सर्गः सरौंकलक्षणत्वात् स्यात् । संहारः स्वावसरे स्यादिति संहारलक्षणत्वाद्वा ॥ २३२ ॥ धौव्यं चात्मावसरे भवति धौव्यैकलक्षणत्तस्य ।
एवं च क्षणभेटः स्याद्वीजांकुरपादपत्ववत्तिति चेत् ॥ २३३ ॥ अर्थ-शंका-उत्पाद अपने समय में होता है क्योंकि उसका उत्पत्ति होना ही एक लक्षण है। व्यय अपने समय में होता है क्योंकि संहार होना ही उसका लक्षण है। इसी प्रकार ध्रौव्य भी अपने समय में होता है क्योंकि उसका धव रहनाही स्वरूप है। जिस प्रकार बीज अंकुर और वृक्ष इनका भिन्न-भिन्न लक्षण है और भिन्न-भिन्न समय है उसी प्रकार उत्पाद व्यय धौव्य का भी भिन्न-भिन्न लक्षण है और भिन्न-भिन्न समय है। यदि ऐसा कहो तो। भावार्थ-भिन्न-भिन्न लक्षण होने से तीनों का भिन्न-भिन्न समय है क्या?
समाधान २३४ से २४७ तक तन्न यतः क्षणभेटो न स्याटेकसमयमात्रं तत् ।
उत्पादादित्रयमपि हेलो: संदृष्टितोऽपि सिद्धत्वात् ॥ २३ ॥ अर्थ-लक्षणभेद होने से तीनों को भिन्न-भिन्न समय में मानना ठीक नहीं है क्योंकि उत्पाद, व्यय और धौव्य तीनों का समय भेद नहीं है। तीनों एक ही समय में होते हैं यह बात हेतु और दृष्टांत से भली-भांति सिद्ध है। इसी का खुलासा नीचे किया जाता है:
अथ ताथा हि बीजं जीजावसरे संदेत नासदिति ।
तन्न व्ययो न सत्ताव्ययश्च तस्मात्सर्टकुरावसरे ॥ २३५ ॥ अर्थ-बीज अपनी पर्याय के समय में है। बीज पर्याय के समय बीज का अभाव नहीं कहा जा सकता। बीज पर्याय के समय बीज पर्याय का व्यय भी नहीं कहा जा सकता किन्तु अंकरपर्याय के उत्पाद समय में बीज पर्याय का व्यय कहा जा सकता है।