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________________ प्रथम खण्ड/प्रथम पुस्तक ४५ कहो, उत्पाद व्यय कहो, विभिन्नता कहो, विसदृशता कहो एक ही बात है। वह आकार से आकारान्तर शरीर के कारण से नहीं हुआ है किन्तु उस समय के स्वकाल की योग्यता से हुआ है। दूसरा दृष्टांत यदि वा प्रदीपरोचिर्यथा प्रमाणादवस्थितं चापि । अतिमिलेगा न्यूल ला गृहशास्मानिनोपोलताडाच्च ॥ १८॥ अर्थ-अथवा दूसरा दृष्टांत दीपक का है। दीपक की किरणें उतनी ही हैं जितनी कि वे हैं परन्तु उनमें अधिकता और न्यूनता जो आती है वह केवल घर आदि आवरक विशेष के निमित्त की उपस्थिति में अवगाहन के कारण आती है। भावार्थ-दीपक को जैसे भी छोटे या बड़े आवरक का निमित्त उपस्थिति रूप(जिसमें दीपक रखा हो वह पात्र) मिलेगा, दीपक का प्रकाश उसी क्षेत्र अनुसार निज अवगाहना को अपने कारण से प्राप्त होगा। निमित्त के कारण से नहीं। तीसरा दृष्टांत अंशानामवगाहे दृष्टान्तः स्वांशसंस्थित ज्ञानम् । अतिरिक्त न्यून वा ज्ञेयाकृति तन्मयान्न तु रवाशैः॥ १४९ ॥ अर्थ-अंशों के अवगाहन में यह दृष्टांत है कि ज्ञान गण जितना भी है वह अपने अंशों (अविभाग प्रतिच्छेदों) में स्थित है। वह जो कभी कमती कभी बढ़ती होता है, वह केवल ज्ञेय पदार्थ का आकार धारण करने से होता है। जितना बड़ा ज्ञेय है उतना ही बड़ा ज्ञान का आकार हो जाता है। वास्तव में ज्ञान गुण के अंशों में न्यूनाधिकता नहीं होती। भावार्थ-कम-ज्यादा जानने की अपेक्षा से है। काम करने की ताकत की अपेक्षा से है। वस्तु रूप में नहीं है। जेय को जानने से ज्ञेय का फोटो नहीं आता। आंखवत् जानता है। ज्ञेय के कारण भी नहीं जानता है। उस समय के स्वकाल की योग्यता से जानता है। तदिदं यथा हि संविघट परिच्छिन्दटिहैव घटमात्रम् 1 यदि वा सर्व लोक स्वयमवगच्छच्च लोकमानं स्यात ॥१९॥ अर्थ-दृष्टांत इस प्रकार है कि जिस समय ज्ञान घट को जान रहा है, उस समय वह घटमात्र है अथवा जिस समय वह संपूर्ण लोक को स्वयं जान रहा है, उस समय वह लोकमात्र है। भावार्थ-घट को जानते हुये समग्र ज्ञान घटाकार में ही परिणत होकर उतना हो जाता है और समग्र लोक को जानते हुये वह लोक प्रमाण हो जाता है। भावार्थ-पर्याय में ज्ञान के पूर्ण जानने की ताकत का नाम लोकाकार है और घट को जानने का नाम घटाकार है। समय-समय के स्वकाल की योग्यता से जानता है। ज्ञेय के या निमित्त के कारण से नहीं। न घटाकारेऽपिचितः शेषांशानां निरन्तयो नाशः। लोकाकारेऽपि चित: नियतांशानां न चासत्पत्तिः ॥ १९१॥ अर्थ-घटाकार होने पर ज्ञान के शेष अंशों का सर्वथा नाश नहीं होता है और लोकाकार होने पर नियमित अंशों के अतिरिक्त उसमें नवीन अंशों की उत्पत्ति भी नहीं होती है। आकार का अर्थ फोटो का नहीं, जानने का है। किन्त्वरित च कोऽपि गुणोऽनिर्वचनीय: स्वतः सिद्धः । नाम्ना चागुरुलघुरिलि गुरुलक्ष्यः रवानुभुतिलक्ष्यो वा ॥ १९२॥ अर्थ-किन्तु उन गुणों में एक अगुरुलघु नामक गुण है। वह वचनों के अगम्य है । स्वत: सिद्ध है। उसका प्रत्यक्ष तो सर्वज्ञ ( परम गुरु) को होता है पर अनुभव से छद्मस्थ भी निश्चय कर लेता है। भावार्थ-अगुरुलधु गुण हर एक पदार्थ में जुदा-जुदा रहता है। उस निमित्त से किसी भी शक्ति का कभी भी नाश नहीं होता है। जो शक्ति जिस स्वरूप को लिये हुये है, वह सदा उसी स्वरूप में रहती है। इसी को अवस्थितपना भी
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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