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द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक
अन्वयार्थ - कर्मभूमि में मनुष्यों के और मानुषियों के तथा तियञ्चों के और तिर्यञ्चनियों के तीन वेद हैं क्योंकि यहाँ उदय भी उसी प्रकार से पाया जाता है।
केषाञ्चिद् द्रष्यतः साङ्गः पुंवेदो भावतः पुनः ।
स्त्रीवेदः वलीववेदो वा पुवेदो वा त्रिधापि च ।। १८५८ ॥ अन्वयः - केषाञ्चिद् द्रव्यतः सांग: पुंवेदः पुन: भावतः स्त्रीवेदः वा क्लीववेदः वा पुंवेदः त्रिधा अपि च।
अन्वयार्थ - किन्हीं के द्रव्य से पुरुष वेद का लिंग है और भाव से स्त्रीवेद या नपुंसकवेद या पुरुषवेद तीनों में से कोई भी हो सकता है।
केषाञ्चित्वलीववेदो वा व्यतो भावतः पुनः।
पुंवेटो वलीनवेदो वा स्त्रीवेदो वा त्रिधोचितः ॥ १८५९॥ अन्वयः - केषाञ्चित् द्रव्यतः क्लीववेदः पुन: भावतः पुंवेदः वा क्लीववेदः वा स्त्रीवेदः त्रिधा उचितः।
अन्वयार्थ - अथवा किन्हीं के द्रव्य से नपुंसकवेद है और भाव से पुरुषवेद अथवा नपुंसकवेद अथवा स्त्रीवेद तीनों में से एक समय में कोई एक कहा गया है। [इसी प्रकार किन्हीं के द्रव्य से स्त्रीवेद है और भाव से तीनों में से कोई एक हो सकता है।]
कश्चिदापर्ययन्यायात क्रमादस्ति त्रिवेदवान ।
कदाचिचलीववेदो वा स्त्री वा भावाचवचित्पुमान || १८६० ।। अन्वयः - कश्चित् भावात् आपर्ययन्यायात् क्रमात् विवेदवान् अस्ति। कदाचित् क्लीववेदः वा कदाचित् स्त्रीवेदः वा क्वचित् पुमान्।
अन्वयार्थ - कोई भाववेद से पर्याय पर्यन्त कम से तीन बेदवाला है - कभी नपुंसकवेद अथवा कभी स्त्रीवेद और कभी पुरुषवेद।
मा ४८० से १८० तक का साररूप लिंगों का नियम-देवगति, भोगभूमि, नरक,एकेन्द्रिय, विकलत्रय और असंझी पंचेन्द्रिय में तो द्रव्यलिङ्ग और भावलिंग की समानता है। कर्मभमि में संजी पंचेन्द्रिय जीवों के कोई नियम नहीं है यहाँ तक कि किसी किसी जीव के तो एक पर्याय में तीनों वेद भी हो सकते हैं। अब अगले एक सूत्र में लिङ्ग भाव की सत्ता का नियम बताते हैं :
भावलिंगों की सत्ता का नियम जयोऽपि भाववेदारले नैरन्तर्योदयात्किल ।
चाबुद्रिपूताः स्युः क्वचिद्वै बुद्धिपूर्वकाः ॥ १८६१॥ अन्वयः - ते त्रयः अपि भाववेदाः नैरन्तर्योदयात् भवन्ति च अबुद्धिपूर्वाः नित्यं स्युः बुद्धिपूर्वका: वै क्वचित्।
अन्वयार्थ - वे तीनों ही भाववेद निरन्तरपने उदयरूप होते रहते हैं। अबुद्धिपूर्वक तो नित्य होते हैं और बुद्धिपूर्वक वास्तव में कहीं कहीं पर होते हैं। __ भावार्थ - ये भावलिंग पहले गुणस्थान से नवमें गुणस्थान तक नियम से सब संसारी जीवों के पाये जाते हैं - यह साधारण नियम है।सातवें आठवें और नवमें गुणस्थान में तो अबुद्धिपूर्वक ही होते हैं। मतिश्रुत ज्ञान द्वारा उस जीव के अपने ज्ञान की पकड़ में नहीं आते।केवल अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान गम्य हैं। पहले से छठे तक बुद्धिपूर्वक तथा अबुद्धिपूर्वक दोनों प्रकार का भाववेद होता है ऐसा यहाँ बताया गया है। अब एक सूत्र में इन भाववेदों का फल बताते हैं :
भालिंगों का फल तेऽपि चारित्रमोहान्ल विनो बन्धहेतवः |
संक्लेशांगेकरूपत्वात्केवल पापकर्मणाम् ॥ १८६२॥ अन्वयः - ते अपि चारित्रमोहान्तीविनः च संक्लेशांगैकरूपत्वात केवलं पापकर्मणां बन्थहेतवः।