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________________ ५१४ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी __ अन्वयार्थ - कहीं कहीं जैसा द्रव्यलिंग होता है वैसा ही भावलिंग होता है और कहीं-कहीं द्रव्यलिंग दूसरा होता है और भावलिंग दूसरा होता है। [ इस प्रकार साधारण नियम बता कर अब इसी का स्पष्टीकरण करते हैं। देवगति में लिंगों का नियम यथा दिविजनारीणां नारीवेदोऽरित तरः । देवानां चापि सर्वेधा पाकः वेद एव हि ॥ १८५२॥ अन्वयः - यथा दिविजनारीणां नारीवेदः अस्ति-इसर न च सधषा अपि देवाना पाकः पुंवेदः एव हि-इतरः न। अन्वयार्थ - जैसे स्वर्ग की सब स्त्रियों के नारीवेद हैं - दूसरा नहीं है और सब देवों के पुरुषवेद का ही उदय है - दूसरा नहीं है। भावार्थ - देव देवियों के द्रव्यवेद और भाववेद दोनों एक जैसे ही होते हैं। भोगभूमि में लिंगों का नियम भोगभूमौ च नारीणां नारीवेदो न चेतरः । पुंवेदः केवलः पुंसां नान्यो नान्योन्यसंभवः ॥ १८५३॥ अन्वयः - भोगभूमी नारीणां नारीवेदः इतर: न च पुंसां केवलः पुंवेदः अन्य: न वा अन्योन्यसंभव: न। अन्वयार्थ - और भोगभूमि में स्त्रियों के स्त्रीवेद है - दूसरा नहीं है और पुरुषों के केवल पुरुषवेद है - दूसरा नहीं है। अन्योन्य सम्भव भी नहीं है [अर्थात् वहाँ स्त्रीवेद वाले के पुरुषवेद और पुरुषवेद वाले के स्त्रीवेद कभी नहीं होता है। भावार्थ - देव देवियों के समान भोगभूमि में भी समान ही वेद होता है। देव देवियों और भोगभूमि के स्त्री पुरुषों के नपुंसक वेद तो दोनों प्रकार का होता ही नहीं। (वेद और स्त्रीवेद भी द्रव्य भाव समान ही होता है। विषम नहीं होता। नरक में लिंगों का नियम नारकाणां च सर्वेषां वेटश्चैको नपुंसकः। द्रव्यलो भावतश्चापि न स्त्रीवेदो न वा पुमान ।। १८५४॥ अन्वय: - च सर्वेषां नारकाणां द्रव्यतः भावतः च अपि एक: नपुंसकः वेद : - न स्त्रीवेदः न वा पुमान्। अन्वयार्थ - और सब नारकियों के द्रव्य से भी और भाव से भी एक नपुंसक वेद ही है - न स्त्रीवेद है अथवा न पुरुषवेद है। ___ एकेन्द्रिय तथा विकलत्रय में लिंगों का नियम तिर्यग्जातौ च सर्वेषां एकाक्षा वेदो विकलत्रयाणां क्लीवः स्यात केवलः किल ॥ १८५५॥ अन्वयः - च तिर्यग्जातौ सर्वेषां एकाक्षाणां नपुंसक: वेदः अस्ति च विकलत्रयाणां किल केवलः क्लीवः स्यात्। अन्वयार्थ - और तिर्यञ्च जाति में सब एक इन्द्रिय जीवों के नपंसक वेद है और विकलत्रय के[दो-तीन-चार इन्द्रिय वालों के] केवल नपुंसक वेद ही है।[ द्रव्य से भी और भाव से भी।] पंचेन्द्रिय असंज्ञी में लिंगों का नियम पंचाक्षासंज्ञिना चापि तिरश्चां स्यान्नपुंसकः । दव्यतो भावतश्चापि वेदो नान्यः कदाचन ॥ १८५६ ॥ अन्वयः - च पंचाक्षासंजिनां तिरश्चां द्रव्यतः भावतः अपि नपुंसकः स्यात् अन्यः कदाचन न स्यात्। अन्वयार्थ - और पंचेन्द्रिय असंज्ञी तिर्यञ्चों के द्रव्य से और भाव से भी नपुंसक वेद है। दूसरा वेद कभी नहीं होता है। कर्मभूमि में लिंगों का नियम १८५७ से १८६० तक ४ कर्मभूमौ मनुष्याणां मानुषीणां तथैव च । तिरश्चां वा तिरश्चीनां त्रयो वेटास्तथोटयात् ॥ १८५७॥ अन्वयः - कर्मभूमौ मनुष्याणां च मानुषीणां तथैव तिरश्चां वा तिरश्चीनां प्रय: वेदा: तथोदयात्।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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