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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
है, दुःख रूप है, दुःख ही है फल जिसका ऐसा है। यहाँ अधिक कहने से क्या सब विपत्तियों का घर है [ भावार्थ के लिये श्री समयसार सूत्र ७२ तथा ७४ टीका सहित पढ़िये ]।
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भावार्थ- आचार्य महाराज ज्ञायक स्वभाव पर दृष्टि रखकर कहते हैं कि देखो भाई ! तेरा स्वभाव तो शुचि है, पवित्र है, निर्मल है और यह भावमोह अशुचि है, अपवित्र है, अनिर्मल [ मलिन ] है जैसे काई तथा यह मोहभाव तेरे उस स्वभाव का घातक है- नष्ट करनेवाला है जैसे गर्मी पानी के शीतल स्वभाव का घात कर देती है तथा यह भावमोह रौद्र है- भयानक है इसके प्रगट होते आत्मा विडम्बना को धारण कर लेता है जैसे डाकू । तथा यह भावमोह दुः खरूप है | देख भाई! तेरा स्वभाव तो अतीन्द्रिय सुख रूप है। उसमें तो शीतलता भरी है। परम आनन्द है। उसका वेदन तो निराकुल परम आह्लाद स्वरूप है किन्तु इस भावमोह का वेदन तो नियम से दुःख रूप है। अनिष्ट संयोग दुःख के कारण नहीं हैं उनका तो आत्मा में त्रिकाल अभाव है। आत्मा के दुःख का कारण केवल एक भावमोह ही है। देखो सम्यक्त्व द्वारा भावमोह को छोड़कर जीव सातवें नरक में भी स्वाभाविक सुख का वेदन कर लेता है और भावमोहयुक्त मिथ्यादृष्टि इन्द्र- अहमेन्द्र भी निरन्तर दुःखी हैं तथा इस भावमोह का फल भविष्य के लिये भी दुःख ही है क्योंकि दुः ख में निमित्तभूत आठ कर्मों के बन्ध का मूल कारण है जैसा कि पहले कहकर आये हैं। अधिक कहाँ तक कहें ग्रन्थकार शिष्य को सम्बोधते हुये कहते हैं कि भाई जीव की सब आपत्तियों का कारण यह भावमोह ही है। जो पहले सूत्र में कहा था उसी का पुनः यहाँ समर्थन कर दिया है। अब यह सब आपत्नियों का मूल क्यों है । इसको स्पष्ट करने के लिये उसका कर्म के साथ जो कार्यकारण सम्बन्ध है उसको बताते हैं
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सम्पूर्ण भावमोह में कार्यकारणपने की सिद्धि कार्यकारणमप्येष मोहो भावसमाह्वयः ।
पूर्वबद्धानुवादेन प्रत्यग्रास्त्रवसंघयात् ॥ १८३२ ॥
अन्वयः - अपि एषः भावसमाह्वयः मोहः कार्यकारणं [अस्ति ] पूर्वबद्धानुवादेन [ कार्य ] प्रत्यग्रास्त्रवसंचयात् [ कारणं ]।
अन्वयार्थ और यह भाव नामक मोह ही कार्य कारण रूप है। पूर्वबद्ध कर्म के उदय से होने के कारण से तो कार्य हैं और आगामी आस्त्रव का संचय करने से कारण है ।
भावार्थं - यह भावमोह कैसे उत्पन्न होता है तो कहते हैं कि जब जीव अपने ज्ञायक स्वभाव का आश्रय छोड़कर द्रव्यमोह से दोस्ती करता है तो यह भावमोह उत्पन्न होता है अतः यह स्वभाव का कार्य नहीं है किन्तु द्रव्यमोह का कार्य है। स्वभाव का कार्य तो वीतरागता है। राग उसका कार्य नहीं है। क्योंकि यह भावमोह द्रव्यमोह के उदय में जुड़ने से उत्पन्न होता है इसलिये तो कार्य है और जैसे कि पहले कहकर आये हैं उसी समय इसका निमित्त पाकर आठ या ७ कर्म तुरन्त बन्ध जाते हैं इसलिये उन अगले कर्मों के आस्स्रव बन्ध का मूल कारण होने से यह भावमोह कारण भी है। इस प्रकार इसका अनिष्टमूलक आठकर्मों के साथ कार्य कारण भाव सदा से बना हुआ है। इसी को स्वयं ग्रन्थकार अब स्पष्ट करते हैं:
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भावमोह के कार्यपने का स्पष्टीकरण यदोच्चैः पूर्वबद्धस्य द्रव्यमोहस्य कर्मणः ।
पाकाल्लब्धात्मसर्वस्वः कार्यरूपस्ततो नयात् ॥ १८३३ ॥
अन्वयः - यदा उच्चैः पूर्वबद्धस्य द्रव्यमोहस्य कर्मणः पाकात् लब्धात्मसर्वस्वः ततः नयात् कार्यरूपः ।
अन्वयार्थ क्योंकि वास्तव में पूर्वबद्ध द्रव्यमोह कर्म के उदय से प्राप्त किया है आत्मसत्ता को जिसने [ ऐसा जो भावमोह वह भावमोह ] इस न्याय से कार्यरूप है।
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यह क्षणिक विकार उत्पन्न हो जाता है कि जितनी डिग्री में द्रव्यमोह का उदय जब जीव स्वयं अपनी अनादि अज्ञानता के
भावार्थ- जब यह जीव अपने ज्ञायक स्वभाव का आश्रय छोड़कर द्रव्यमोह को आश्रय करता है तो फलस्वरूप अतः यह द्रव्यमोह का कार्य है आत्मा का नहीं। यहीं यह नहीं बताना है। उतनी डिग्री में भावमोह की उत्पत्ति होती है। यहाँ तो यह बताना है कि कारण अपने ज्ञायक स्वभाव का आश्रय छोड़कर द्रव्यमोह में 官
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