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________________ ४९६ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी त्रिषु ज्ञानेषु चैतेषु यत्रयादज्ञानमर्थतः । क्षायोपशमिके तत्रयान्ज स्याटौदायिकं क्तचित् ॥ १७८६॥ अन्बयः - च एतेषु त्रिषु ज्ञानेषु यत् अज्ञानं स्यात् । अर्थतः तत् क्षायोपशमिकं स्यात्। औदयिकं क्वचित् न स्यात् । अन्वयार्थ - और इन तीनों ज्ञानों में जो अज्ञान [ कुज्ञान] है - पदार्थरूप से वह क्षायोपशमिक भाव है। औदयिक भाव कहीं भी नहीं है। भावार्थ - कुअवधि, कुमति और कुश्रुत मिथ्याज्ञान भी अपने-अपने आवरणों के क्षयोपशम से ही होते हैं। इसलिये वे भी क्षायोपशमिक भाव हैं। वे मिध्यादर्शन के साथ होते हैं - इसलिये अज्ञान कहलाते हैं। मिथ्यात्व के अविनाभावी ज्ञान भी पदार्थ को विपरीत रूप से जानते ही हैं परन्तु जानना क्षायोपशमिक ज्ञान है। अज्ञान कहने से उन्हें यहाँ आदयिक अज्ञानभाव न समझ लेना। अस्ति यत्पुनरज्ञानमदिौदयिकं स्मृतम् । तदरित शून्यारूपं यथा निश्चेतनं वपुः ॥ १७८७ ॥ अन्वयः - पुनः यत् अज्ञानं अस्ति-तत् अर्थात् औदयिकं स्मृतं । तत् शून्यतारूपं अस्ति यथा निश्चेतन वपुः। अन्वयार्थ - और जो अज्ञान है [ अर्थात् जितने अंश में ज्ञान का उघाड़ नहीं है] वह पदार्थरूप से औदयिक अज्ञान माना गया है - वह शून्यतारूप है जैसे चेतनारहित शरीर [ भावार्थ आगे अज्ञान औदयिक भाव में देखिये ]। भावार्थ .. जीत के २१ भादरिष्ठ में जान भी है। वह अज्ञानभाव जीव की औदयिक अवस्था है। जब तक इस आत्मा में सर्व पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है अर्थात् जब तक केवलज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है तब तक उसके अज्ञान भाव रहता है। इस भाव में ज्ञानावरण का उदय अंश निमित्त है। [ उतने अंश में ]| ___ यह अज्ञान भाव औदयिक भाव है। इसका कारण भी यही है कि क्षायोपशमिक ज्ञान भी आत्मा का गुण है। जितने अंशों में भी ज्ञान प्रगट हो जाता है वह आत्मा का गुण ही है और जो आत्मा का गुण है - वह औदयिक भाव हो नहीं सकता क्योंकि उदय तो कर्मों का ही होता है कहीं आत्मा के गुणों का उदय नहीं होता। इसलिये ज्ञानावरण के उदय अंश से होनेवाली आत्मा की अज्ञान अवस्था को ही अज्ञानभाव कहते हैं। वह अज्ञान औदयिक है। जो भाव ज्ञानावरण के क्षयोपशम अंश से होता है वह क्षायोपशमिक भाव है। इसलिये ही कुमति, कुश्रुत और विभङ्ग जानों को क्षायोपशमिक भावों में गिनाया गया है। एतावतारित यो भावो दृमोहरयोदयादपि । पाकाच्चारित्रमोहस्य सर्वोऽप्यौदायिकः स हि ॥ १७८८॥ अन्वयः - एतावता यः भावः दृङ्मोहस्य उदयात् अपि चारित्रमोहस्य पाकात् [ भवति ] सः सर्वः हि औदयिकः [अस्ति । अन्वयार्थ - इससे यह फलितार्थ हुआ कि जो भाव दर्शन-मोह के उदय से और चारित्रमोह के उदय से होता है वह सब ही औदयिक भाव है। न्यायादप्येवमन्येषां मोहादिघातिकर्मणाम । यावांस्तनोदयाजातो भावोऽरत्यौदायकोsरिवलः ॥ १७८९ ॥ अन्वयः - एवं न्यायात् अपि अन्येषां मोहादिघातिकर्मणां उदयात् तत्र यावान् भाषः जातः अखिलः औदयिक: अस्ति । अन्वयार्थ - इसी प्रकार न्याय से दूसरे मोहादि घातिकर्मों के उदय से वहाँ जो भाव उत्पन्न होता है - वह सब औदयिक है। (१) आत्मा में एक ज्ञान गुण है। उसको आवरण करनेवाला ज्ञानावरण कर्म है। ज्ञानावरण के उदय से ज्ञान तिरोभूत हो जाता है वह इस प्रकार कि केवलज्ञानावरण के उदय से जीव के एक समय के सम्पूर्ण स्वपर प्रकाशक ज्ञान . स्वभाव का तिरोभूत होता है - यह औदयिकपना है। मन:पर्यय ज्ञानावरण से मनःपर्यय ज्ञान तिरोभूत होता है।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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