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________________ ४२४ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी अन्वयार्थ - इस सम्यक्त्व गुण का भिन्न ही उद्देश्य [नाम कथन ] है और भिन्न ही लक्ष्य है। भिन्न ही लक्षण है और सममित्त मन ही दर्शनमोह कम है।फिर यह गुण[ ज्ञान गुण या दर्शन गुण में ] अन्तर्भाव[ समाविष्ट ]किस न्याय से हो सकता है ? [अर्थात् किसी तरह भी यह उनमें समाविष्ट नहीं किया जा सकता किन्तु भिन्न ही स्वतन्त्र सिद्ध है। एवं जीवस्य चारित्र गुणोऽस्येकः प्रमाणसात् । तन्मोहयति यत्कर्म तत्स्याच्चारित्रमोहनम ॥ १७७४।। अन्वयः - एवं जीवस्य एकः चारित्रं गुणः प्रमाणसात् अस्ति। तत् यत् कर्म मोहयति तत् चारित्रमोहनं स्यात् । अन्वयार्थ - इसीप्रकार जीव का एक चारित्र गुण प्रमाण से [सिद्ध ] है - उसको जो कर्म मोहित करता है - वह चारित्र मोहनीय है। अरित जीवस्य वीर्यारव्यो गुणोऽस्त्येकरत्तदादिवत् । तमन्तरयलीहेदमन्तरायं हि कर्म तत् ॥ १७७५ ।। अम्बय: - तदादिवत् जीवस्य एकः वीर्याख्यः गुणः अस्ति। तं इदं अन्तरयति तत् हि अन्तरायं कर्म अस्ति। अन्वयार्थ - ऊपर के गुणों की तरह जीव का एक वीर्य नामक गुणा है - उसको जो यह अन्तरित करता है वह ही अन्तराय कर्म है। एतावदा तात्पर्य यथा ज्ञानं गणश्चितः । तथाऽनन्ता गुणा ज्ञेया युक्तिस्वानुभवागमात् ॥१७७६ ॥ अन्वयः - अब एतावत् तात्पर्य यथा चितः ज्ञानं गुणः तथा युक्तिस्वानुभवागमात् अनन्ता: गुणाः ज्ञेयाः । अन्वयार्थ - यहाँ यह ही तात्पर्य है कि जैसे आत्मा का ज्ञान गुण है - उसीप्रकार युक्ति, स्वानुभव और आगम में [सिद्ध] अनन्त गुण जानने चाहिये। न गुणः कोऽपि कस्यापि गुणस्यान्तर्भवः क्वचित् । जाधारोऽपि नाधेयो हेतु पीह हेतुमान् ॥ १७७७॥ अन्वयः - कः अपि गणः कस्य गुणस्य क्वचित अपि अन्तर्भव: न, आधार: न, आधेय: अपि न, अपि इह हेत: न, हेतुमान् न। अन्वयार्थ - कोई भी गुण किसी भी गुण में कभी भी अन्तर्भाव नहीं होता है। न कोई गुण किसी गुण का आधार है, न आधेय है, न हेतु है और न हेतुमान् है। भावार्थ - हेतु और हेतुमान का अर्थ कारण कार्य भी हो सकता है अथवा साधन साध्य भी हो सकता है। कोई गुण किसी गुण का कारण भी नहीं, कार्य भी नहीं, साधन भी नहीं, साध्य भी नहीं। सब स्वतन्त्र सत्ता के धारक हैं। प्रत्येक गुण असहाय-स्वतन्त्र है। किन्तु सर्वोऽपि स्वात्मीयः स्वात्मीयशक्तियोगतः । नानारूपाह्यनेकेऽपि सता सम्मिलिता मिथः ॥ १७७८|| अन्वयः - किन्तु सर्वः अपि स्वात्मीयशक्तियोगत: स्वात्मीयः। एवं हि नानारूपाः अनेके अपि सता मिथः सम्मिलिताः। अन्वयार्थ-किन्तु सब ही अपनी-अपनी शक्ति के योग से अपने-अपने रूप हैं। इसप्रकार नानाप्रकार से अनेक होने पर भी सत् से [ अपने द्रव्य से ] सब परस्पर सम्मिलित हैं । अर्थात् सब एक ही द्रव्य के आश्रय रहते हैं या यूं कहिये कि उनका पिण्ड ही द्रव्य है]। गुणानां चाप्यनन्तल्वे वाग्व्यवहारगौरवात् । गुणाः केचित् समुद्दिष्टा: प्रसिद्धाः पूर्वसूरिभिः ॥ १७७९ ॥ अन्वयः - च गुणानां अनन्तत्वे अपि वाग्व्यवहारगौरवात् पूर्वसूरिभिः केचित् प्रसिद्धः गुणा: समुद्दिष्टाः।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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