________________
द्वितीय खण्ड /सातवीं पुस्तक
४९३
शब्दार्थ - गत्यन्तरात् = दूसरी ओर, विपक्ष में। चेतनावरणं - ज्ञानावरण ।
अन्वयार्थ - इस प्रकार अर्थ के वश से निश्चय से आत्मा के अनेक गुण हैं तथा दूसरी ओर निमित्त में वास्तव में एक ज्ञानावरण कर्म है।
दर्शनावरणेऽप्येषः क्रमो ज्ञेयोऽस्ति कर्मणि ।
आवृतेरविशेषाद्वा चिद्गुणरयानलिक्रमात् ॥ १७६९।। अन्वयः - अपि दर्शनावरणः।एष: कमः कर्मणि ज्ञेयः अस्ति यत: चिद्गुणस्य वा अविशेषात् आवृते: अनतिकमात्।
अन्वयार्थ - एक दर्शनावरण कर्म है। यह कम कम में भी जानने योग्य है क्योंकि यह दर्शनावरण भी दर्शन गुण को उसीप्रकार से तिरोभूत करने में अतिक्रम नहीं करता [ जैसे कि ज्ञानावरण ज्ञान को तिरोभूत करता है ।
भावार्थ - जैसे आत्मा में एक ज्ञान गुण है तो उधर एक ज्ञानावरण कर्म है। उसी प्रकार जैसे आत्मा में एक दर्शन गुण है तो उधर एक दर्शनावरण कर्म है। जैसे ज्ञानावरण आत्मा के चेतनरूप ज्ञानगुण को बकता है उसी प्रकार दर्शनावरण आत्मा के चेतनरूप दर्शनगुण को ढकता है। दोनों का एक जैसा क्रम है।
एवं च सति सम्यक्त्वे गुणे जीवस्य सर्वतः ।
तं मोहयति यत्कर्म दृइमोहारव्यं तदुच्यते ॥ १७७०॥ अन्वयः - च एवं जीवस्य सम्यक्त्वे गुणे सति - यत् कर्म तं सर्वतः मोहयति तत् दमोहाख्यं कर्म उच्यते ।
अन्वयार्थ - और इसीप्रकार जीव का सम्यक्त्व गुण होने पर, जो कर्म उसको सर्वप्रकार से मोहित करता है - वह दर्शनमोह नामक कर्म कहा जाता है।
जैतत्कर्मापि ततुल्यमन्तर्भातीति न क्वचित् ।
तदद्वयावरणादेतदरित जात्यन्तरं यतः || १७७१॥ अन्वयः - एतत् कर्म अपि तत्तुल्यं न । क्वचित् अन्तर्भावि इति न यतः एतत् तवयावरणात् जात्यन्तरं अस्ति ।
अन्वयार्थ - यह दर्शनमोह कर्म भी उस [ ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण ] के समान नहीं है तथा उन दोनों कर्मों में अन्तर्भूत [ समाविष्ट ] भी नहीं होता है क्योंकि यह कर्म उन दोनों आवरणों से दूसरी जाति का है।
भावार्थ - ज्ञानावरण दर्शनावरण कर्म भिन्न है। यह दर्शनमोह भिन्न है तथा उन दोनों की आवरण करने की जाति और प्रकार की है और इसकी कार्य जाति और ही प्रकार की है। वे तो प्रतिपक्षी गुणों को ढकते मात्र हैं। उनकी कार्यशक्ति हीन हो जाती है। किन्तु यह तो सम्यक्त्व के स्वरूप से ही उलटा होने में अर्थात विपरीतता में निमित्त है। इसलिये इसकी कार्य जाति उन दोनों से भिन्न है। इसलिये ज्ञान, दर्शन, गण आत्मा में भिन्न हैं। है तथा उसीप्रकार उनके आवरण ज्ञानावरण दर्शनावरण भिन्न हैतथा सम्यक्त्व कानिमित्त दर्शनमोह भिन्न है। इसलिये एक-दूसरे में अन्तर्भूत नहीं होते। पृथक्-पृथक् ही हैं।
तत सिर्ट यथा ज्ञानं जीवस्यैको गणः स्वतः ।
सम्यक्त्वं च तथा नाम जीवस्यैको गुणः स्वतः ॥ १७७२॥ अन्वयः - ततः सिद्धं यथा ज्ञानं जीवस्य एकः गुण: स्वतः अस्ति तथा च सम्यक्त्वं नाम जीवस्य एकः गुणः स्वतः अस्ति ।
अन्वयार्थ - इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जैसे ज्ञान जीव का एक गुण स्वत: [ सिद्ध ] है - उसीप्रकार सम्यक्त्व नामक भी जीव का एक गुण स्वत: [सिद्ध] है।[ और उससे भिन्न है ।
पृथगुद्देश एवारय पृथक लक्ष्यं च लक्षणम् ।
पृथग्दृड्मोहकर्म स्याटन्तर्भावः कुतो नयात् ॥ १७७३ ।। । अन्वयः - अस्य पृथक् उद्देश्यः एव। पृथक् लक्ष्यं च पृथक् लक्षणं च पृथक् दङ्मोहकर्म। अन्तर्भावः कुत नयात् स्यात् ?