________________
४८८
ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
अन्यवार्थ - शंका-देवादि पर्याय केवल नाम कर्म के उदय से होती है फिर वह नामकर्म घातिकर्म के समान कैसे जीवभाव का कारण हो जाता है।
भावार्थ - शङ्काकार कहता है कि आप शरीरानुसार जीवके रागभावकोगतिभाव कहते हैं। रागभाव में तो मोहनीय नामा घातिकर्म निमित्त है और गतिनामा औदयिक भाव में तो नाम कर्म के गति नामा कर्म का निमित्त है जो अघाति कर्म है। अघाति कर्म तो शरीर के बनने में निमित्त है - जीव के भाव में नहीं। फिर जीव के भाव में यह नाम कर्म का भेद गति नामा कर्म कैसे निमित्त कारण हो गया?
समाधान सत्यं तन्नामकापि लक्षणाच्चित्रकारवत् । ननं तद्देहमानादि निर्मापयति चित्रवत ॥ १७४६॥ अरिस तत्रापि मोहस्य नैरन्तर्योदयोऽजसा ।
तरमादौदयिको भाव: स्यात्तदेहक्रियाकृतिः ॥ १७४७॥ अन्वयः - सत्यं। लक्षणात् तत् नामकर्म अपि चित्रकारवत् अस्तितत् ननं चित्रवत् देहपात्रादि निर्मापयति [किन्तु ] तत्रापि मोहस्य अञ्जसा नैरन्तर्योदयः अस्ति। तस्मात् औदयिकः भाव तदेहक्रियाकृतिः स्यात् ।
अन्वयार्थ - ठीक है। लक्षण से वह नामकर्म चित्रकारवत् ही है और वह वास्तव में चित्र के समान देहमात्र आदि [मन-वचन-आङ्गोपाङ्ग आदि पौद्गलिक वस्तुयें ] ही बनाता है [ अर्थात् तुम्हारी यह बात ठीक है कि नामकर्म शरीरादि के बनने में ही निमित्तमात्र कारण है - जीव के भाव में नहीं] किन्तु वहाँ भी मोह का वास्तव में निरन्तरपने से रहने वाला वैसा ही उदय है। इसलिये औयिक भाव उस देह की किया की आकृत रूप होता है।
भावार्थ - उसकी शंका का यह समाधान किया कि यह तो ठीक है कि नाम कर्म तो शरीर के ही बनने में निमित्त है और जीवभाव के बनने में तो मोहकर्म ही निमित्त है किन्तु इसमें इतनी विशेषता है कि उस मोह का उदय उस गति के अनुसार होता है - अन्य प्रकार से नहीं होता अर्थात् जिस गति में जैसे भाव होते हैं वहाँ उसी प्रकार का मोहनीय का उदय है। यदि गति नामकर्म को निमित्त नकहकर केवल मोहकर्म कोही निमित्त कह देते तो यह कैसे पता चलता कि इसप्रकार का मोहभाव कहाँ होता है। उसको गति पर आरोप करके कथन करने से तरन्त पता चल जाता है कि यह मनुष्यगति का भाव है और यह तिर्यंचगति का भाव है।
शंका ननु मोहोदयो नूज स्वायत्तोऽरत्येकधारया ।
तत्तद्वपुःक्रियाकारो नियतोऽयं कुत्तो नयात् ॥ १७४८ ॥ अन्वयः - ननु मोहोदयः नूनं स्वायत्तः एकथारया अस्ति [ तत् ] अयं तत्तद्वपुःक्रियाकारः कुतः नयात् नियत्तः [अस्ति ।
अन्वयार्थ - शङ्का जब मोह का उदय वास्तव में अपने आधीन एकधारा से है [ वह शरीरादि के आधीन नहीं है ] [फिर] यह उस-उस शरीर की क्रिया के आकार रूप नियम से किस न्याय से हो जाता है।
भावार्थ - शिष्य का कहना है कि मोहनीय कर्म तो एक सामान्य कर्म है। उसका कार्य तो मोह-राग-द्वेष में निमित्त होना है फिर उस मोह के उदय की उपस्थिति में यह जीव उसी शरीर के आकार रूप भावों को कैसे उत्पन्न करता है - कृपया यह समझाइये। सो उत्तर में ग्रन्थकार उस मोह के भेद-प्रभेद और उसके भिन्न-भिन्न कार्यों को समझाते हैं -
समाधान १७४९ से १८०१ तक ५३ लै यतोऽनभिज्ञोऽसि मोहरयोदयवैभवे ।
तत्रापि बुद्धिपूर्वे चाबुद्धिपूर्वे रवलक्षणात् ॥ १७४९॥ अन्वयः - नैवं यत:मोहस्य उदयवैभवे अनभिज्ञः असि। तत्र अपि स्वलक्षणात् बुद्धिपूर्वे च अबुद्धिपूर्वे [ अनभिज्ञः असि]