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________________ ४८६ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी (२) इसीप्रकार आत्मा में एक दर्शन गुण है। उधर उसका प्रतिपक्षी एक दर्शनावरण कर्म है। दर्शनावरण के ४ भेद हैं। (१) केवलदर्शनावरण कर्य के उदय से जीव को जो सम्पूर्ण पदार्थों का युगपत् दर्शन नहीं होता है - वह जीव का औदयिक अदर्शन भाव है और दर्शनावरण के क्षय से जो जीव को केवलदर्शन होता है - वह क्षायिक भाव है।(२) अवधिदर्शनावरण कर्म के उदय से जीव को जो अवधिदर्शन नहीं है - वह जीव का औदयिक अदर्शन भाव है और अवधिदर्शनावरण के क्षयोपशम से जो सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीव को अवधिदर्शन होता है - वह जीव का क्षायोपशमिक दर्शन भाव है।(३-४) चक्ष-अचक्षु दर्शनावरण के क्षयोपशम अंश से जितना दर्शन जीव के प्रगट है - उत्तना तो क्षायोपशामिक भाव है और जितने अंश में उदय है - उतना औदयिक अदर्शनभाव है। मनःपर्यय दर्शनावरण नहीं होता तथा मनःपर्यय ज्ञान में सु या कु विशेषण नहीं होता। (३) इसीप्रकार आत्मा में एक वीर्य गुण है। उधर उसका प्रतिपक्षी एक अन्तराय कर्म है। अन्तराय के क्षय से प्रगट होनेवाला अनन्तवीर्य क्षायिक भाव है।क्षयोपशम से प्रगट वीर्य क्षायोपशमिक भाव है और उदय अंश से अप्रगट वीर्य औदयिक भाव है। (४) इसीप्रकार आत्मा में एक सम्यक्च गुण पथक है। उधर उसका प्रतिपक्षी एकदर्शनमोहनीय कर्म पथक है। उसके क्षय, क्षयोपशम और उपशम से तो क्रमश: क्षायिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव होते है किन्तु उदय से मिथ्यात्व भाव होता है। जो आत्मा में एक निर्विकल्प मलिनता है जो अतश्वश्रद्धान या विपरीत तत्त्वार्थश्रद्धान से प्रगट की जाती है। इसका विवेवन ग्रंथकार ने स्वयं बहत किया है। (५) इसी प्रकार आसाम एक चारित्र गुग है। उधर उसका प्रतिपक्षी चारित्रमोहनीय कर्म है। उसके क्षय, क्षयोपशम और उपशम से तो क्रमशः क्षायिक,क्षायोपशमिक और औपशमिक भाव होते हैं किन्तु उदय में जुड़ने से नियम से राग-द्वेष-कषाय असंयम आदि औदयिक भाव होते हैं। उपर्युक्त अज्ञानभाव का तो २१ औदयिक भावों में पृथक् उल्लेख है ही।औदयिक अदर्शन और औदयिक अवीर्य को अज्ञान में ही अन्तर्भूत करने की आगम पद्धति है। अतः इसका पृथक् उल्लेख नहीं है। मिथ्यादर्शन और चारित्र भावों का पृथक् उल्लेख है ही। अब रहा गति औदयिक भाव - वह क्या वस्तु है तो ग्रन्थकार कहते हैं कि दर्शनमोह और चारित्रमोह के उदय से ही गति औदयिक भाव होते हैं। वस्तु स्वभाव का ऐसा नियम है कि जैसी गति होती है वहाँ तद्नुसार ही द्रव्यमोह का उदय रहता है और इसीलिये वैसा राग वहाँ ही होता है - अन्यत्र गति में नहीं होता। इसलिये उस राग की पथक-पृथक जातियों का ज्ञान कराने के लिये उन भावों को मोह भाव न कहकर गति पर आरोप करके गति औदयिक भावों के नाम से आगम में निरूपण किया है। ये भाव मलिन हैं। बन्धसाधक हैं। इसप्रकार ग्रन्थकार ने गति औदयिक भाव को समझाने के लिए इतना कुछ उल्लेख किया है। अब आप इसे ध्यान से पढ़िये तो आपको कोई कठिनाई न होगी क्योंकि उपर्युक्त लेख गति अधिकार के ८० सूत्रों का निचोड़ हमने आपकी सहूलियत के लिये लिख दिया है ताकि आप सुगमता से विषय को अनुसरण करते हुए स्पष्ट समझ सकें। गति के ४ भेद गतिजामास्ति कमैकं विरख्यातं नामकर्मणि । चतस्त्रो गलयो यस्मात्तच्चतुर्धाऽधिगीयते ॥ १७४१॥ अन्वयः- नामकर्मणि गतिनामा एकं कर्म विख्यातं अस्ति।यस्मात् गतय: चतस्त्रः [तस्मात् तत् चतुर्धा अधिगीयते। अन्यवार्थ - नाम कर्म में गति नामा एक कर्म प्रसिद्ध है। क्योंकि गतियाँ चार हैं। इसलिये वह कर्म भी चार प्रकार का कहा गया है। गति का कारण कर्मणोऽस्य विपाकाद्वा दैवादब्यतमं वपुः । प्राप्य तनोचितान्भावान् करोत्यात्मोदयात्मनः ॥ १७४२ ॥ अन्वयः - अस्य कर्मणः विपाकात् वा दैवात् अन्यतमं वपुः प्राप्य तत्र आत्मा उदयात्मनः उचितान् भावान् करोति।
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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