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द्वितीय खण्ड/सातवीं पुस्तक
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भावार्थ-सम्यज्ञान प्रमाण है और उसका फल इष्टप्राप्ति, अनिष्टपरिहार और माध्यस्थ भाव है।एकदेश शुद्धभाव साधन है और पूर्णशुद्धता साध्य है अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र साधन हैं और मोक्षसाध्य है। संसार मोक्ष में भावरूप क्रिया करने वाला आत्मा कर्ता है- यह पहला कर्तीकारक है। विभाव भाव या स्वभाव भाव यह उसका कर्म है - कार्य है- यह दूसरा कर्मकारक है। इसको अध्यात्म में क्रिया भी कहते हैं। कर्म-किया-भाव इनका एक ही अर्थ है।
यदि द्रव्य में स्वभाव और पर्याय में विभाव मानते हो तो सम्यग्ज्ञानरूप प्रमाण बनता है और स्वभाव का ग्रहण और विभाव का त्याग- उसका फल बनता है। विभाव दशा मानते हो तो इसको दूर करने के लिये एकदेश शद्धभाव साधन और पूर्ण शुद्धभाव साध्य बनता है तथा यदि संसार मोक्ष दोनों पर्यायरूप मानकर उनका करनेवाला आत्मद्रव्य मानते हो तब तो कत्र्ता-कर्म दोनों कारक बनते हैं अन्यथा[अर्थात् यदि अभी आत्मा को शुद्ध मानते हो तो यह सब व्यवस्था खत्म हो जायेगी। पर यह सब व्यवस्था तो प्रत्यक्ष अनुभव सिद्ध है।
उपसंहार सिद्भमेतावताऽप्येवं वैकृता भावसंततिः।
अरित संसारिजीवानां दुःरवमूतिर्दुरुत्तरी ॥ १७२६ ।। अन्वयः - अपि एतावता सिद्धं । एवं वैकृता भावसंतति: संसारीजीवानां अस्ति [चा ] दुरुत्तरी दुःखमूर्तिः अस्ति।
अन्वयार्थ - इससे यह सिद्ध हो गया है कि इस प्रकार विकृतरूप भावों की सन्तति संसारी जीवों के है जो दुलघ्य दुःख की मूर्ति है।
भावार्थ- इससे यह सिद्ध हो गया कि औदयिक आदि चार भावों में से औदयिक भाव रूप यह जीव वर्तमान में परिणामन कर रहा है और ये औदयिक भाव दुःखरूप होने से संसारी जीव वास्तव में दुःखी भी है तथा इन दुःखरूप औदयिक भावों का फल कर्मबन्ध है जो कर्मबंध चार गति रूप खोटे फल का देनेवाला है तथा इससे यह भी सिद्ध हो गया कि साधनरूप से औपशमिक और क्षायोपशमिक भाव है तो एकदेश सुखरूप है और इससे यह भी सिद्ध हो गया कि क्षायिक भावों रूप मोक्ष भी है जो पूर्ण सुखरूप है।
औदयिक आदि ५ भावों की भूमिका समाप्त हुई। पाँच भावों का सामान्य निरूपण (सूत्र १७२७ से १७४० तक १४)
प्रश्न नन वैभाविका भावाः कियन्तः सन्ति कीदशाः ।
किं नामानः कथं ज्ञेया ब्रूहि मे वदतां तर ॥ १७२७॥ अन्वयः - ननु वैभाविकाः भावाः कियन्तः। किदृशाः सन्ति। किं नामानः । कथं ज्ञेयाः। हे वदतां वरं! मे ब्रूहि।
अन्वयार्थ - शंका - वैभाविक भाव [ विशेष भाव ] कितने हैं ? कैसे हैं ? क्या नाम वाले हैं ? कैसे जानने योग्य हैं ? [अर्थात् उनके पहचानने में क्या चिह्न-लक्षण हैं । हे कहने वालों में श्रेष्ठ ! मुझे कहिये।
भावार्थ - यहाँ वैभाविक भावों से केवल रागादि भावों से या केवल औदयिक भावों से आशय नहीं है किन्तु औदयिक औपशमिक क्षायिक क्षायोपशमिक और पारिणामिक पाँचों भावों से आशय है। यहाँ वैभाविक भाव का अर्थ है विशेष भाव अर्थात् जीव के असाधारण भाव। शिष्य उनके नाम, लक्षण, भेद-प्रभेद इत्यादिक सब कुछ जानना चाहता है ताकि जीव का साङ्गोपाङ्ग ज्ञान हो सके।
उत्तर सूत्र १७२८ से १७४० तक १३ श्रण साधो महाप्राज्ञ! वच्म्यहं यत्तवेप्सितम ।
प्रायो जैनागमाभ्यासात किञ्चित्रतानुभवादपि ॥ १७२८ ॥ अन्वयः - हे साधो महाप्राज्ञ ! शृणु। यत् तव इप्सितं तत् अहं प्रायः जैनागमाभ्यामात् किञ्चित् स्वानुभवात् अपि वच्मि । __ अन्वयार्थ - हे बुद्धिमान् सज्जन ! तू सुन। जो तुझे इष्ट है वह मैं प्रायः जैनागम के अभ्यास से और कुछ स्वानुभव से भी कहता हूँ।