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द्वितीय खण्ड/सातवी पुस्तक
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अन्वयार्थ - वह इस प्रकार कि - जीव के चारित्र, दर्शन, सुख, ज्ञान, सम्यक्त्व - ये प्रगट रूप से विशेष गुण हैं।
भावार्थ - एक द्रव्य में दो प्रकार के गुण पाये जाते हैं - एक सामान्य दूसरे विशेष।जो गुण छहों द्रव्यों में पाये जाते हैं उन्हें सामान्य गुण कहते हैं और जो सबमें न पाये जाकर किसी-किसी में पाये जाते हैं उन्हें विशेष गुण कहते हैं। क्योंकि उपर्युक्त गुण जीव में ही पाये जाते हैं, अन्य द्रव्यों में नहीं पाये जाते अतः ये जीव के प्रत्यक्ष-प्रगट अनुभव में आने वाले विशेष गुण हैं। इनका स्पष्टीकरण ग्रन्थकार स्वयं आगे करेंगे - अत: यहाँ विशेष भावार्थ की आवश्यकता नहीं है। अब जीव के कुछ सामान्य गुणों का निर्देश करते हैं:
वीर्य सूक्ष्मोऽवगाहः स्यादव्यानाधस्चिदात्मकः।
स्यादगुरुलघुसंशं च स्युः सामान्यगुणा इमे ॥ १७११॥ अन्वयः - चिदात्मकः वीर्य सूक्ष्मः अवगाह: अव्याबाधः अगुरुलघुसंशं च स्यात्। इमे [ जीवस्य] सामान्यगुणाः स्युः।
अन्वयार्थ - चैतन्यात्मक वीर्य, सूक्ष्मर, अवगाह', अव्याबा, और अगुरुलधु नामक इत्यादिक ये जीव के सामान्य गुण है।
भावार्थ - सामान्य गुण हैं तो जीव में भी तथा अन्य शेष पाँच द्रव्यों में भी फिर भी एक विशेषता है। जीव के सामान्य गुण चेतन रूप हैं और रोग व द्रव्यों के सही समय जब जैसे :(१) वीर्यगण-"स्वरूपनिर्वर्तनसामर्थ्यरूपा वीर्यशक्तिः"-स्वरूपकी रचनाकीसामर्थ्यरूपवीर्यशक्तिा वीर्यगा।
यह छहों द्रव्यों में पाया जाता है क्योंकि बिना वीर्य के कोई भी द्रव्य अपने स्वरूप की रचना नहीं कर सकता।
अत: यह सामान्य गुण है। किन्तु जीव का वीर्य चेतन स्वरूप है - शेष द्रव्यों का वीर्य जड़ स्वरूप है। (२) सूक्ष्मगुण - उसको कहते हैं जो इन्द्रियों से ग्रहण न हो। सो पाँच द्रव्य तो अमूर्तिक हैं। इन्द्रियों से ग्रहण होते
ही नहीं। अतः वे तो हैं ही सूक्ष्म। अब रहा पुद्गल। पुद्गल परमाणु दशा में शुद्ध द्रव्य कहलाता है। स्कन्ध औपचारिक द्रव्य है- उसका यहाँ कथन नहीं है-न प्रकरण है। परमाणु दशा में पुद्गगल भी सूक्ष्म है। अत: यह सूक्ष्म गुण भी छहों द्रव्यों में पाये जाने से सामान्य है। जीव का सूक्ष्मतत्व चेतनरूप है। शेष का जड़ रूप है। अवगाह - छहों द्रव्य एक स्थान में रहते हैं और एक दूसरे को उसी स्थान में रहने को जगह दे देते हैं। यह अवगाह
सामान्य गुण है जो छहों द्रव्यों में पाया जाता है। जीव का अवगाह चेतनरूप है - शेष का जरूप। (४) अव्याबाध - का यह अर्थ है कि एक द्रव्य अनादि अनन्त अपने चतुष्टय में अपना कार्य करता है - दूसरे को
कोई बाधा नहीं देता। सो यह भी सभी द्रव्यों में पाये जाने से सामान्य गुण है। जीव का अव्याबाध चेतनरूप
है - शेष का जड़रूप है। (५) अगुरुलघु - 'घटस्थानपतितवृद्धिहानिपरिणतस्वरूपप्रतिष्ठत्वकारणविशिष्टगुणात्मिका-अगुरुलधुत्वशक्ति:'
षटस्थानपतितवृद्धिहानि रूप से परिणमित, स्वरूप-प्रतिष्ठत्व का कारणरूप [ वस्तु के स्वरूप में रहने के कारणरूप] जो विशिष्ट गुण है - उस स्वरूप अगुरुलघुत्त्व शक्ति। इस षट्स्थानपतित हानिवृद्धि का स्वरूप 'गोमटसार' ग्रन्थ से जानना चाहिये। अविभाग प्रतिछेदों का संख्या रूप षट्स्थानों में समाविष्ट वस्तु स्वभाव की हानि-वृद्धि जिस गुण से होती है और जो वस्तु को स्वरूप में स्थिर होने का कारण है, ऐसा कोई गुण छहों द्रव्यों में है, उसे अगुरुलधुत्त्व गुण कहा जाता है। ऐसी अगुरुलघुत्त्व शक्ति भी आत्मा में है। आत्मा में चेतनरूप है-अन्यों में जड़रूप है।
आपको यह शंका हो सकती है कि ग्रंथकार ने प्रसिद्ध अस्तित्त्व, वस्तुत्व आदि को छोड़कर ये और क्यों लिख दिये? सो भाई! वे तो सब जानते ही हैं। यह ऊँचा ग्रंथ है। आचार्य देव ने जानबूझ कर अन्य लिखे हैं ताकि जीव को विशेष ज्ञान हो। यह तो आपने पढ़ा ही है कि एक द्रव्य में अनन्त सामान्य गुण है। आचार्य महाराज को तो महान् ज्ञान होता है - उन्होंने जो उचित समझे वे लिख दिये। फिर आपको यह भी शंका हो सकती है कि ये तो जीव के विशेष प्रतिजीवी गुण बतलाये गये हैं-सामान्य गुण है ही नहीं। भाई। पदार्थ अनन्तगुणरूप है। वचन संख्यात परिमित है। जिसप्रकार एक ही नाम के कई व्यक्ति होते हैं - वही बात यहाँ है।