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________________ ४६८ ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी : N E - - - -- - उत्तर - इन गुणस्थानों में सम्यग्दर्शन तो अद्धा गुण की शुद्ध पर्याय है जो राग रहित निर्विकल्प है। सम्यग्ज्ञान ज्ञानगुण के क्षयोपशम रूप है। इसका कार्य केवल स्व पर को जानना है।राग से इसका भी कुछ सम्बन्ध नहीं है। चारित्र ! में जितनी स्वरूप स्थिरता है उतना तो शद्ध अंश है और जितमा राग है उतनी मलीनता है। अतः चारित्र को यहाँ सराग या सविकल्प कहते हैं। प्रश्न २५२ -- सातवें से बारहवें तक तीनों गुणों की वास्तविक परिस्थिति क्या है ? उत्तर - श्रद्धा गुण की सम्यग्दर्शन पर्याय तो वैसी ही शुद्ध ई जैसी छठे तक थी उसमें कोई अन्तर नहीं है। ज्ञान है तो क्षयोपशमरूप पर बुद्धिपूर्वक सबका सब उपयोग स्वज्ञेय को ही जानता है। राग से इसका भी कुछ सम्बन्ध नहीं है। चारित्र में बुद्धिपूर्वक राग तो समाप्त हो चुका। अबुद्धिपूर्वक का कुछ राग दसवें तक है। शेष सब शुद्ध परिणमन है और बारहवें में राग नाश होकर चारित्रपूर्ण वीतराग है। प्रश्न २५३ - यहाँ सराग सम्यग्दृष्टि से क्या अभिप्राय है? उत्तर - जिस सम्यग्दर्शन के साथ बुद्धिपूर्वक चारित्र का राग वर्तता है। उसके धारी चौथे, पाँचवें, छठे । गुणस्थानवर्ति जीवों को यहाँ सविकल्प या सराग सम्यग्दृष्टि कहा है। प्रश्न २५४ - यहाँ वीतराग सम्यग्दृष्टि से क्या अभिप्राय है? उत्तर - जिस सम्यग्दर्शन के साथ बुद्धिपूर्वक चारित्र का राग नहीं वर्तता है। उसके धारी सातवें आदि गुणस्थानवर्ति जीवों को यहाँ निर्विकल्प या वीतराग सम्यग्दृष्टि कहा गया है। (२)शामधेसमा अधिकार प्रश्न २५५ - ज्ञानचेतना किसे कहते हैं ? उत्तर - सम्यक्त्व से अविनाभूत मतिश्रुतज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम से होनेवाला जान का उघाड़ और उस उधाइके राग रहित शद्धपरिणमन को ज्ञानचेतना कहते हैं अथवा ज्ञान के ज्ञानरूप रहने को।रागरूप न होने को] ज्ञानचेतना कहते हैं अथवा ज्ञान के ज्ञानरूप वेदन को ज्ञानचेतना कहते हैं। प्रश्न २५६ - ज्ञानचेतना के कितने भेद हैं? उत्तर - दो - (१) लब्धिरूप ज्ञानचेतना ( २) उपयोगरूप ज्ञानचेतना। प्रश्न २५७ - लब्धिरूप ज्ञानचेतना किसे कहते हैं ? उत्तर - सम्यक्त्व से अविनाभूत ज्ञानचेतना को आवरण करने वाले मतिश्रुतज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम को । लब्धिरूप ज्ञानचेतना कहते हैं। वह ज्ञान के उपाइरूप है। प्रश्न २५८ - उपयोगरूप ज्ञानचेतना किसे कहते हैं ? उत्तर -- लब्धिरूप ज्ञानचेतना की प्राप्ति होने पर जब ज्ञानी अपने उपयोग को सब परज्ञेयों से हटाकर केवल निजशुद्ध आत्मा को संवेदन करने के लिए स्व से जोड़ता है, उस समय उपयोगात्मक ज्ञानचेतना होती है। यह ज्ञान के स्व में उपयोगरूप है। प्रश्न २५९ - लब्धिरूप ज्ञानचेतना किन के पाई जाती है ? उत्तर - चौथे से बारहवें गुणस्थान तक सभी जीवों के हर समय पाई जाती है। प्रश्न २६० - उपयोगरूप ज्ञानचेतना किन के पाई जाती है? उत्तर - चौथे, पाँचवें, छठे वालों के कभी-कभी पाई जाती है और सातवें से निरन्तर अखण्डधारारूप से पाई जाती है। - - - -- - - -
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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