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________________ ४६६ ग्रन्थराज भी पञ्चाध्यायी अनुभव रूप हुये थे वे तो अनुभव रूप रहते ही हैं, किन्तु वहाँ मुख्यपने कर्मधारा से निकल-निकल कर स्व रस-स्वाद अनुभवरूप होते जाते हैं। ज्यों-ज्यों आगे का समय आता है त्यों-त्यों और-और परिणाम स्वादरस अनुभवरूपकर बढ़ते चलते हैं। इस प्रकार वहाँ से अनुभव दशा के परिणाम बढ़ते जाते हैं। इसी प्रकार क्षीणमोह [बारहवें गुणस्थान] पर्यन्त जानना। तेरहवाँ तो है ही सर्वथा साक्षात् पूर्ण ज्ञानचेतना रूप [आत्मावलोकन पन्ना १६५-१६६]। सम्यग्दृष्टि में ज्ञानचेतना के साथ-साथ और क्या-क्या सद्गुण पाये जाते हैं - इनको गुरु महाराज स्वयं स्पष्ट करते हैं: स्वसंवेटनप्रत्यक्ष ज्ञानं स्तानुभताह्वयम्। वैराग्यं भेदविज्ञानमित्याद्यस्तीह किं बलु ॥ १७०५ ॥ अर्थ - स्वानुभव नाम का स्वसंवेदनप्रत्यक्ष ज्ञान, वैराग, भेदविज्ञान इत्यादि वे गुण हैं जो सभ्यग्दर्शन के होने पर 1 नियम से होते हैं और सब सम्यग्दृष्टियों में चौथे से ऊपर तक सबके पाये जाते हैं। इस विषय में और अधिक क्या कहें। भावार्थ - सम्यग्दर्शन के होने पर ही भेदविज्ञानादि उत्तम गुणों की प्राप्ति होती है - अन्यथा नहीं होती। दूसरा ये भी आशय है कि जो गुण सम्यग्दर्शन के साथ में होते हैं वे ही सद्गुण हैं। बिना सम्यग्दर्शन के होने वाले गुणों को सदगुणों की उपमा भले ही दी जाय, परन्तु वास्तव में वे सद्गुण नहीं हैं। चौधे गुणस्थान से पहले-पहले भेदविज्ञानादि [सद्गुण] होते भी नहीं है। ऊपर सब सम्यग्दृष्टियों में रहते हैं। अविनाभाव हैं। पूर्व सूत्र ९६० से अनुसंधानित अद्वैतेऽपि त्रिधा प्रोक्ता चेतना चैवमागमात् । ययोपलक्षितो जीवः सार्थनामा स्ति नान्यथा ॥ १७०६ ॥ अर्थ - चेतना अद्वैत होने पर भी तीन प्रकार कही जा चुकी है और आगम से भी इसी प्रकार सिद्ध है। जिस चेतना से उपलक्षित [ लक्ष में लिया गया ] जीव सार्धनामवाला है। अन्य धा नहीं । अत् चतना लक्षण बिना जीव नहीं होता - अजीव होता है ] भावार्थ - चेतना जीव का लक्षण है। यहाँ जीव के अखण्ड परिणमन की अपेक्षा चेतना का निरूपण किया है। वह चेतना तीन भेद रूप है। ज्ञानी के ज्ञानचेतना और अज्ञानियों के अज्ञानचेतना कर्मचेतना और कर्मफलचेतना]। इस प्रकार सूत्र ९५८ से यहाँ तक जीव का चेतना लक्षण करके पर्यायार्थिक नय से अखण्डचेतना परिणमन की अपेक्षा निरूपण किया। अब आगे सातवीं पुस्तक में उसी जीव का खण्ड परिणमन की अपेक्षा चेतना के गुण भेद करके निरूपण करेंगे। (१) सविकल्प निर्विकल्प चर्चा प्रश्न २४३ - सम्यग्दर्शन दो प्रकार का है या नहीं ? उत्तर - नहीं। आत्मा में एक श्रद्धा गुण है। उसकी एक विभाव पर्याय होती है जिसको मिथ्यादर्शन कहते हैं और एक स्वभाव पर्याय होती है जिसको सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह स्वभावपर्याय चौथे से सिद्ध तक एक प्रकार की ही होती है। सविकल्प निर्विकल्प सम्यग्दर्शन या व्यवहार-निश्चय सम्यग्दर्शन नाम की इसमें कोई पर्याय ही नहीं होती। अतः । सम्यग्दर्शन को दो प्रकार का मानना प्रश्न २४४ - विकल्प शब्द के क्या-क्या अर्थ होते हैं ? उत्तर --(१)विकल्प शब्द का एक अर्थ तो साकार है। यह ज्ञान का लक्षण है। इस अपेक्षा सभी ज्ञान सविकल्पक कहलाते हैं [ और दर्शन निर्विकल्पक कहलाता है |(२)विकल्प शब्द का दूसरा अर्थ उपयोग संक्रान्ति है। इस अपेक्षा छास्थ के चारों ज्ञान सविकल्पक हैं। केवलज्ञान निर्विकल्पक है। (३) तीसरे एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ पर उपयोग के परिवर्तन को भी विकल्प कहते हैं। इस अपेक्षाउपयोगात्मक स्वात्मानुभूति के समय तो छस्थ काज्ञान निर्विकल्यक
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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