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द्वितीय खण्ड/छठी पुस्तक
नाश नहीं होता। औपशमिक की स्थिति केवल अन्तर्मुहूर्त है और क्षायोपशमिक की स्थिति अन्तर्मुहूर्त से ६६ सागर तक है। इनमें समय की मर्यादा का भेद तो है पर यह भेद नहीं है कि एक सविकल्प सम्यग्दृष्टि, दूसरे निर्विकल्प सम्यग्दृष्टि निमित्तदृष्टि से भी इन तीनों ही सम्यक्त्व में मिथ्यात्वप्रकृति का उदय नहीं है इसलिये उनमें रसबन्धकत किसी प्रकार का अन्तर नहीं है किन्तु क्षायिक सम्यम्दृष्टि को छोड़कर शेष दोनों प्रकार के सम्यग्दृष्टियों के प्रतिपक्षी कर्म की सत्ता रहती है। अत: उन दोनों में स्थितिबन्धकृत भेद पाया जाता है - ऐसा कहा है। अब इसी बात को विशेष रूप से स्पष्ट करने के लिये उसे कर्म Philosophy समझाते हैं :
तद्यथाऽथ चतुर्भेदो बन्धोऽनादिनभेटतः ।
प्रकृतिश्च प्रदेशारख्यो बन्धौ स्थित्यनुभागकौ ॥ १७00॥ अर्थ - पूर्वोक्त कथन का खुलासा इस प्रकार है कि अनादि काल से बन्ध अवान्तर भेदों की अपेक्षा से चार भेद रूप है। प्रकृतिबन्ध, प्रदेशबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध [इनका लक्षण इस प्रकार है :-]
प्रकृतिस्तत्रवभावात्मा प्रदेशो देशसंश्रयः।
अनभागो रसो शेयो स्थिति: कालावधारणम || १७०१॥ अर्थ - प्रकृतिबन्ध उसके स्वभावरूप है [अर्थात् जिसका जो स्वभाव है- वह उसकी प्रकृति है जैसे ज्ञानावरण की प्रकृति ज्ञान के उघाड़ न होने में निमित्त होना। जो जिसका नाम है - वही उसकी प्रकृति है | प्रदेशबन्ध प्रदेशों के आश्रय है [अथात् प्रदेशों की संख्या प्रदेशबन्ध है ]। अनुभागबन्ध रस जानना चाहिए [अर्थात् पुद्गल परमाणुओं में पड़ी हुई फलदान शक्ति ] और स्थितिबन्ध काल की मर्यादा है।
स्वार्थक्रियासमर्थोत्र बंध: स्याद्रससंज्ञिकः ।
शेषबन्धनिकोऽप्येव न कार्यकरणक्षमः ॥ १७०२ ॥ अर्थ:- इन चारों बन्धों में स्वार्थक्रिया में समर्थ तो रस-संज्ञका अनुभाग] बन्ध है। यह शेष तीन प्रकार का बन्ध कार्य करने में समर्थ नहीं है।
अन्तिम उपसंहार ततः स्थितिवशाटेव सन्मात्रेऽग्यत्र संस्थिते ।
ज्ञानसंचेतनायास्तु क्षतिर्न स्यान्मनागयि ॥ १७०३॥ अर्थ - इसलिए दो सम्यग्दर्शनों में स्थिति के वश से ज्ञानचेतना को नाश करनेवाले कर्म के सत्तामात्र में स्थित रहने पर भी ज्ञानचेतना की क्षति तो जरा भी नहीं होती है।
भावार्थ - शिष्य ने जो यह कहा था कि क्षायोपशमिक और औपशमिक सम्यग्दृष्टि के ज्ञानचेतना मत मानो - उसका उत्तर यह दिया कि हम यह तो तुम्हें समझा ही चुके हैं कि सम्यक्त्व के साथ ज्ञानचेतना को आवरण करने वाले कर्म के क्षयोपशम का अविनाभाव है। तीनों सम्यग्दृष्टियों के ज्ञानचेतना का अनुभव एक बराबर है और तीनों निर्विकल्प सम्यग्दृष्टि हैं - ऐसा निश्चय करना। यहाँ लाकर उसकी शङ्का का अन्तिम निर्णय दिया है।
पूर्व सूत्र १५८७-१५८८ से अनुसंधानित एवमित्यादयश्चान्ये सन्ति ये सगणोपमाः।
सम्यवत्वमानमारभ्य ततोऽप्यूज़ च तद्वतः ।। १७०४ ।। अर्थ- यह ज्ञानचेतना आदिक अन्य जो-जो सदगुण हैं वे सम्यक्त्व मात्र[चौथे गणस्थान से प्रारम्भ करके उससे ऊपर भी सब सम्यग्दृष्टि जीवों के पाये जाते हैं।
भावार्थ - सम्यग्दष्टियों के लब्धिरूप ज्ञानचेतना हर समय रहती है और उपयोगरूप जानचेतना का स्पष्टीकरण तो इस प्रकार है :- जो सम्यग्दृष्टि चौथे गुणस्थान का है उसके तो स्वअनुभव का काल लघु अन्तर्मुहूर्त पर्यंत रहे है
है और उससे देशवती का अनुभव रहने का काल बड़ा अन्तर्महर्त है और थोड़े ही काल पीछे-पीछे होता है और सर्वविरति के स्व अनुभव दीर्घ अन्तर्मुहूर्त तक रहता है और ध्यान से भी होता है और बहुत थोड़े-थोड़े काल पीछे-पीछे स्व अनुभव दशा बारम्बार हुआ ही करती है और सातवें से तो ये परिणाम, जो पूर्व स्व