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ग्रन्थराज श्री पञ्चाध्यायी
माताहा
अभिज्ञानं च तत्रास्ति वर्धमाने चिति स्फुटम् ।
__ रागादीनामभिवृद्धिर्न स्याद् व्याप्तेरसम्भवात् ।। १६५१ ।। शब्दार्थ - अभिज्ञानं - दृष्टान्त = उदाहरण।
अर्थ – इस विषय में ( उपरोक्त कथन को सिद्ध करने के लिए) दृष्टान्त भी है कि ज्ञान के प्रगट रूप से बड़ जाने पर गगादिक नहीं बढ़ते हैं क्योंकि इनमें व्याप्ति नहीं है अर्थात् ज्ञान की वृद्धि के साथ रागादिक की वृद्धि का अविनाभाव नहीं पाया जाता है। ज्ञान के बढ़ने पर राग भी बढ़े - ऐसा नहीं है। ___ भावार्थ - अगर ज्ञान और राग एक होते या उनमें व्याप्ति होती तो ज्ञान के बढ़ने पर राग भी बढ़ना चाहिए था किन्तु हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि किसी मुमुक्ष में ज्ञान तो बढ़ता रहता है पर राग नहीं बढ़ता बल्कि कम हो जाता है। इससे पता चलता है कि उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। चौथे से बारहवें तक ज्ञान तो प्राय: बढ़ता चला जाता है और राग तो नाश होता ही जाता है।
वर्द्धमानेषु चैतेषु वृद्धिऑनस्य न क्वचित् ।
अस्ति यता स्वसामय्यां सत्यां वृद्धिः समा द्वयोः ॥ १६५२ ॥ अर्थ-और कहीं इन रागादिकों के बढ़ने पर ज्ञानको वद्धि नहीं होती है। यदि उस ज्ञान की वद्धि भी है तो अपनी सामग्री के होने पर है। इस प्रकार कभी दोनों में समान वृद्धि भी हो जाती है। ____ भावार्थ – कभी ऐसा देखने में आता है कि किसी पापी में राग तो बढ़ता चला जाता है पर ज्ञान नहीं बढ़ता और कहीं ऐसा भी देखने में आता है कि किसी पापी में राग भी बढ़ता है और ज्ञान भी बढ़ता है - पर वे एक-दूसरे के कारण से नहीं किन्तु अपने-अपने कारण से बढ़ते हैं। ज्ञान की वृद्धिका निमित्त कारण ज्ञानावरण का क्षयोपशम और ज्ञान की योग्यता है। राग की वृद्धि का कारण जीव का तीव्र उल्टा पुरुषार्थ तथा मोहनीय का तीव्र उदय है। इससे स्पष्ट है कि दोनों भिन्न-भिन हैं।
ज्ञानेऽथ वर्धमानेऽपि हेतोः प्रतिपक्षक्षयात् ।
रागादीनां न हानिः स्याद्रेतो: मोहोदयात ससः ॥ १६५३|| अर्थ - और कहीं अपने प्रतिपक्ष के क्षय रूप हेतु से एक ही समय किसी को ज्ञान का विकास बहुत वृद्धिरूप हो, किन्तु राग की हानि नहीं होती है। क्योंकि उस राग के कारण मोह के उदय का सद्भाव है।
भावार्थ - क्योंकि ज्ञान और गग दोनों के कारण जुदा-जुदा हैं – इसलिये हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि किसी विद्वान् । में एक ही समय में ज्ञानावरण के अधिक क्षयोपशम रूप कारण से ज्ञान तो बहुत बढ़ जाता है पर राग बिलकुल कम नहीं होता - उलटा व्यसनों और पापों में प्रवृति देखी जाती है क्योंकि उस राग के कारण रूप मोह कर्म के उदय का सद्भाव है। इसलिये दोनों भिन्न-भिन्न हैं।
यद्वा दैतात्तत्सामग़यां सत्यां हानिः समं द्वयोः।
आत्मीयात्मीयहेतोर्या या जान्योन्यहेतुतः ॥ १६५४ ।। अर्थ - अथवा दैवयोग से उन दोनों की कारण सामग्री होने पर दोनों में एक साथ हानि भी होती है - पर वह हानि अपने-अपने कारण से जाननी चाहिए - एक-दूसरे के कारण से नहीं अर्थात् एक ही हानि का कारण दूसरे की हानि का कारण कभी नहीं हो सकता।
भावार्थ - कभी-कभी ऐसा देखने में आता है कि बुढ़ापे में किसी मुमुक्षु जीव में एक साथ ज्ञान भी कम हो जाता है और राग भी कम हो जाता है पर वहाँ यह न समझ लेना चाहिये कि एक-दूसरे के कारण से हुए। किन्तु भवितव्यतानुसार एक साथ ज्ञानावरण का कुछ उदय बढ़ जाता है और उसी समय मोहनीय का कुछ उदय कम हो जाता है तो एक साथ अपने-अपने कारण से घटते हैं। एक-दूसरे के कारण से नहीं। यहाँ तक यह सिद्ध किया कि ज्ञान और गग भिन्न-भिन्न हैं।