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द्वितीय खण्ड/छठी पुस्तक
भावार्थ - पूर्व सूत्र में कहा है कि सब सम्यग्दृष्टियों के अखण्ड धारा प्रवाह रूप से नित्य ज्ञानचेतना होती है। उसका कारण इस सूत्र में बताते हैं कि सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति के समय ही उनके ज्ञानचेतना लब्धि उत्पन्न हो जाती है क्योंकि उस लब्धि को आवरण करने वाले मतिश्रुत ज्ञानावरण कर्म का विशिष्ट क्षयोपशम सम्यक्त्व से अविनाभूत है - समव्याप्ति है। जहाँ-जहाँ सम्यक्त्व है वहाँ-वहाँ ज्ञानचेतना लब्धि को आवरण करने वाले कर्म का क्षयोपशम है और जहाँ-जहाँ सम्यक्त्व नहीं है वहाँ-वहाँ लब्ध्यावरण कर्म का क्षयोपशम भी नहीं है। यह त्रिकाल अबाधित नियम है। इसलिए पर में ज्ञानचेतना नहीं है किन्तु उपयोग के पर में जाने पर भी स्व में ही लब्धि रूप ज्ञानचेतना है। अब यह कहते हैं कि स्वोपयोग यदि स्व से छूट कर पर में भी चला जाय तो उपयोगात्मक ज्ञानचेतना भले नष्ट हो जाये पर वह लब्धि रूप ज्ञानचेतना को नष्ट नहीं कर सकती क्योंकि उसकी समव्याप्ति उसके साथ नहीं है।
काटाचित्कारित ज्ञानस्य चेतना स्तोपयोगिनी ।
नालं लब्धेर्विनाशाय समव्यारसम्भवाल || १६१८॥ अर्थ-यद्यपि ज्ञान की स्व में उपयोगरूप रहने वाली चेतना [अर्थात् उपयोगात्मक ज्ञानचेतना ] कभी-कभी होने वाली है [अर्थात् अनित्य है ] तो भी वह लब्धिरूप ज्ञानचेतना के विनाश के लिये समर्थ नहीं है क्योकिलब्धि और उपयोगरूप ज्ञानचेतना में] समव्याप्ति नहीं पाई जाती है।
भावार्थ – सम्यग्दर्शन का अविनाभावी जो मतिश्रुत ज्ञानावरण का विशेष क्षयोपशम है उसी को लब्धि कहते हैं, और उस लब्धि के होने पर आत्मा की तरफ उन्मुख (रुज) होकर आत्मानुभव करना ही स्वोपयोग है। लब्ध और स्वोपयोग में कारण कार्य भाव है। लब्धि के होने पर ही स्वोपयोगात्मक ज्ञान होता है, अन्यथा नहीं। परन्तु यह नियम नहीं है कि लब्धि के होने पर स्वोपयोग रूप ज्ञान हो ही हो। स्व-उपयोगात्मक ज्ञान अनित्य है। लब्धिरूप ज्ञान नित्य है। जिस समय स्व के अनुभव के लिए आत्मा उद्यत होता है उसी समय उसके स्वोपयोगात्मक ज्ञान होता है परन्तु लब्धिरूप ज्ञान बना ही रहता है। इसलिये स्वोपयोग और विपक्षी-मधिमध्यापित है। जो व्याप्ति एक तरफ से होती है उसे विषम व्याप्ति कहते हैं। स्वोपयोग के होने पर लब्धि अवश्य होती है परन्तु लब्धि के होने पर स्वोपयोगात्मक चेतना हो भी और नहीं भी हो, नियम नहीं है। जो व्याप्ति दोनों तरफ से होती है उसे समव्याप्ति कहते हैं जैसे ज्ञान और आत्मा। जहाँ ज्ञाम है वहाँ आत्मा अवश्य है और जहाँ आत्मा है वहाँ ज्ञान अवश्य है। ऐसी दोनों ओर से व्याप्ति लब्धि और स्वोपयोगरूप ज्ञानचेतना में नहीं है।
अस्त्यत्र विषमव्याप्तिर्यावल्लन्युपयोगायोः । लब्धिक्षतेरवश्यं स्यादुपयोगक्षतिर्यतः ।। १६१९ ॥ अभावातूपयोगस्य क्षतिर्लब्धेश्च वा न वा |
यत्तदातरणस्यामा दशा व्याप्तिर्न चामुना ॥ १९२०॥ अर्थ - यहाँ लब्धि और उपयोग में विषम व्याप्ति है क्योंकि लब्धि के नाश से अवश्य उपयोग का नाश हो जाता है। किन्त उपयोग के अभाव से लब्धि का नाश हो अथवा न भी हो कारण कि लब्धिरूप ज्ञानचेतना को आवरण करने वाले कर्म के क्षयोपशम की उस सम्यग्दर्शन के साथ व्याप्ति ( समव्याप्ति ) है उस उपयोग के साथ नहीं है।
भावार्थ - लब्धि और उपयोग में इसलिये विषम व्याप्ति है कि जहाँ-जहाँ लब्धि का नाश है वहाँ-वहाँ उपयोग का नाश है यह तो ठीक है पर जहाँ-जहाँ उपयोग का नाश है वहाँ-वहाँ लब्धि का नाश हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता। इसका कारण यह है कि लब्धि को आवरण करने वाले कर्म के क्षयोपशम की व्याप्ति उपयोग से नहीं है जो उपयोग के नाश होते लब्धि का नाश हो ही हो किन्तु उस आवरण के क्षयोपशम की व्याप्ति तो सम्यक्त्व के साध है। इसलिये सम्यक्त्व के नाश होने पर लब्धि अवश्य नाश होती है। इसलिये भाई सम्यकवी का उपयोग पर में जाने पर भी लब्धि रूप ज्ञानचेतना तो बनी ही रहती है। ___ उपरोक्त को सुनकर शिष्य कहता है कि इसका आपके पास क्या प्रमाण है कि सम्यक्त्व के साथ लब्धि को आवरण करने वाले कर्म के क्षयोपशम की समव्याप्ति है जो स्वोपयोग के नाश होने पर भी लब्धि रूप ज्ञान है। उत्तर में आगम प्रमाण तथा प्रत्यक्ष प्रमाण दोनों देते हैं :