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द्वितीय खण्ड/छठी पुस्तक
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पुनः भावार्थ – सम्यक्त्व के साथ उत्पन्न होनेवाली ज्ञानचेतना के लिये चारों ही ज्ञानों का संक्रमण बाधक नहीं है क्योंकि ज्ञानचेतना का बाधक विवक्षित ज्ञानावरण का उदय ही हो सकता है। क्षयोपशम नहीं। जिसप्रकार प्रतिपक्षी कर्म के क्षय से उत्पन्न होनेवाली ज्ञान की क्षायिक रूप शुद्ध पर्याय ज्ञान-चेतना की बाधक नहीं है, उसी प्रकार ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होनेवाली क्षायोपशामिक रूप ज्ञान की पर्याय भी यद्यपि वैभाविक है तथापि वह ज्ञानचेतना की बाधक नहीं हो सकती है कारण कि क्षायोपशमिक रूप ज्ञान की पर्यायें कथंचित् ज्ञानगुणरूप ही पड़ती हैं। इसलिये क्षायोपशामक ज्ञान के विकल्प (चारों भेद) उस ज्ञानचेतना के बाधक नहीं हो सकते हैं।
सूत्र १५९९ से १६१३ तक का सार - शिष्य की पहली यह शंका थी कि सम्यग्दर्शन के दो भेद हैं। एक सविकल्प सम्यग्दर्शन - एक निर्विकल्प सम्यग्दर्शन - उसके उत्तर में गुरु महाराज कहते हैं कि यह धारणा नितान्त गलत है। अगर तुम विकल्प का अर्थ उपयोगसंक्रान्ति करते हो तो यह लक्षण तो सब क्षम्योपशमिक ज्ञानों में पाया जाता है। क्षायिक ज्ञान में नहीं पाया जाता। इस प्रकार तो सब छद्मस्थों का सम्यक्त्व सविकल्प ठहरेगा और केवली का सम्यक्त्व निर्विकल्प - सो बात ठीक नहीं है। दूसरी बात यह है कि ज्ञान के क्षयोपशम रूप होने से कोई दोष भी नहीं है जिसके आधार से क्षायोपशमिक ज्ञानियों के सम्यक्त्व को सविकल्प कहा जाय। इसलिये सम्यक्च के सविकल्प निर्विकल्प दो भेद मानना ठीक नहीं॥१६१२।। दूसरी शंका उसकी यह थी कि सविकल्प सम्यग्दृष्टियों के ज्ञानचेतना नहीं है। उसका उत्तर यह दिया कि यदिक्षायोपशमिक ज्ञान-ज्ञानचेतना में बाधक माना जाये फिर तो केवली के ही ज्ञानचेतना रहेगी - छास्थों के नहीं - दूसरे क्षायोपशमिक ज्ञान भी ज्ञान रूप है। ज्ञानचेतना भी ज्ञानरूप है। दोनों ज्ञान की पर्यायें हैं। ज्ञानरूप हैं। जिस प्रकार एक जीव में चार ज्ञान अविरोध रूप से एक साथ रहते हैं क्योंकि वे एक ज्ञान गुण की पर्यायें हैं - ज्ञान रूप हैं। इसी प्रकार क्षायोपशमिक ज्ञान और ज्ञानचेतना दोनों ज्ञान की पर्याय हैं। उनके एक साथ रहने में कोई आपत्ति नहीं। एक बात यह भी है कि ज्ञानचेतना का बाधक तो उसके प्रतिपक्षी कर्म का उदय होगा न कि विकल्यात्मक ज्ञानाशत्रुपना तो पतिपक्षीकर्मों में है। इसलिये क्षायोपशमिक ज्ञानियों के ज्ञानचेतना न मानना भी भूल है। ___अगली भूमिका - गुरु महाराज ने यह सिद्ध किया कि क्षायोपशमिक ज्ञान - ज्ञान चेतना का बाधक नहीं है चाहे उपयोग स्व में हो या पर में। इस पर शिष्य कहता है कि मैंने ऐसा सुन रक्खा है कि ज्ञानचेतना स्व में ही होती है - पर में नहीं होती और आप कहते हैं कि पर में उपयोग के समय भी ज्ञान चेतना रहती है तो क्या परपदार्थ में भी ज्ञानचेतना होती है? ऐसी अब वह शङ्का उपस्थित करता है।
शङ्का ननु चेति प्रतिज्ञा स्यादर्थादर्थान्तरे गतिः ।
आत्मनोऽग्यत्र तत्रारित ज्ञानसचेतनान्तरम् ॥ १६१४ ॥ शङ्का - यदि यह प्रतिज्ञा है [ अर्थात् आपका यह कहना है ] कि [ सम्यग्दृष्टि के ज्ञान का] एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ में गमन होता रहता है। और उस समय भी उसके ज्ञान चेतना बनी रहती है तो क्या आत्मा से भिन्न दूसरे परपदार्थ में भी ज्ञानचेतना होती है?
भावार्थ - शङ्काकार ज्ञानचेतना के लब्धि तथा उपयोग रूप दो भेदों को नहीं जानता। उसने केवल उपयोगात्मक ज्ञानचेतना को ही ज्ञानचेतना सुन रक्खा है। इस अपनी समझ के आधार पर वह बोलता है कि मैंने तो सुना है कि ज्ञानचेतना स्व में ही होती है अर्थात् ज्ञानचेतना के समय में उपयोग स्व में ही रहता है -- पर में नहीं जाता और आप कहते हैं कि सम्यग्दष्टि का उपयोग चाहे स्व में रहे या पर में जाये पर उसके जानचेतना तोह क्या ज्ञानचेतना पर में भी होती है? सो इसके उत्तर में उसे समझाते हैं कि यह तो तुम ने ठीक सुन रक्खा है कि ज्ञानचेतना स्व में ही होती है - पर में नहीं होती। हम भी ज्ञानचेतना स्व में ही मानते हैं – पर में नहीं मानते - पर भाई पर के जानने से ज्ञानचेतना का कोई सम्बन्ध नहीं है। उस समय उपयोगात्मक ज्ञानचेतना पर में नहीं होती किन्तु उपयोगात्मक