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ग्रन्धराज श्री पञ्चाध्यायी
संक्रान्ति) नहीं है। क्रमवीपना तो नियम से क्षायोपशमिक ज्ञान में ही है। परिणमन करना तो द्रव्यत्व गुण के कारण होता है जो सामान्य गुण है और सभी द्रव्य में पाया जाता है। क्रमवीपना उपयोग के परिवर्तन को कहते हैं जो जीव में ही पाया जाता है। और छद्मस्थ अवस्था में ही पाया जाता है। केवली उपयोग का परिवर्तन नहीं करते - अतः वह कमवर्ती नहीं - अक्रमवती ही है और छद्मस्थ पुनः-पुन: उपयोग का परिवर्तन करता है- अतः वह क्रमवती ही है।। इसलिये यह बात सिद्ध हुई कि : -
उपसंहार यावच्छनास्थजीवाजामस्ति ज्ञानचतुष्टयम् ।
नियतकमवर्तित्वात्सर्वं संक्रमणात्मकम् ॥ १६११ ॥ अर्थ -[इसलिये यह बात सिद्धदई कि] छद्मस्थ जीवों का जितना ज्ञान चतुष्टय है [अर्थात् क्षायोपशमिक ज्ञान है ] वह नियम से कमवर्तित्त्व होने से सब संक्रमण स्वरूप है [अर्थात् उपयोग संक्रान्ति को लिये हुए है।
विषय अनुसंधान - शंकाकार की पहली शंका यह थी कि सम्यग्दर्शन के सविकल्प-निर्विकल्प दो भेद हैं सो उसके उत्तर में उसे समझाते हैं कि विकल्प का एक अर्थ तो संक्रान्ति है और संक्रान्ति तो चारों ज्ञानों में सभी छदास्य जीवों के है। यदि इस कारण से तुम उनके सम्यक्त्व को सविकल्प कहते हो तो यह तुम्हारी भूल है क्योंकि :
नाल दोषाय तच्छक्तिः सुक्तसंक्रातिलक्षणा ।
हतो(भाविकत्वेऽपि शक्तित्ताद्वाराशक्तित !! १८१२ ॥ भावार्थ - जिसका लक्षण संक्रान्ति कहा है ऐसी वह क्षायोपशमिक ज्ञानशक्ति किसी प्रकार भी दोष उत्पन्न करने में समर्थ नहीं है। कि जिसके आधार से सम्यक्त्व के सविकल्प और निर्विकल्प दो भेद किये जाएं कारण कि यद्यपि वह वैभाबिकी है तथापि ज्ञानशक्ति के समान वह भी एक शक्ति है [जैसे ज्ञानशक्ति ज्ञानरूप है वैसे यह भी जान रूप है। कुछ रागरूप या अन्य किसी उलटे रूप नहीं है जो कुछ दोष उत्पन्न करती हो और उस दोष के कारण सम्यक्त्व को सविकल्प कहते हों।
भावार्थ - जैसे ज्ञानावरण के क्षय से सब ज्ञान का उघाड़ खुल जाता है उसी प्रकार ज्ञानावरण के क्षयोपशम से ज्ञान का कुछ उघाड़ खुल जाता है। जैसे क्षायिक ज्ञान भी ज्ञान रूप है वैसे यह क्षायोपशमिक ज्ञान भी ज्ञान रूप है। वह सारा ज्ञान सम्यक्त्व के लिये कुछ लाभकारक नहीं - यह अधूरा ज्ञान सम्यक्त्व के लिये कुछ बाथक नहीं - दोषकारक नहीं क्योंकि वह भी ज्ञान रूप है - यह भी ज्ञान रूप है। अब इसके उत्तर में यदि तुम यह कहो कि वह ज्ञान स्वभाव रूप है और यह विभावरूप है तो उसका उत्तर यह है कि विभाव दो प्रकार का होता है जैसे एक तो सम्यक्त्व का मिथ्यात्वरूप, चारित्र का राग रूप - सो यह विभाव तो स्वभाव का उलटा है - इसलिये हानिकारक है पर ज्ञान में यह बात नहीं है। स्वभाव ज्ञान पूरे ज्ञान को कहते हैं-विभाव ज्ञान अधरे ज्ञान को कहते हैं। विभाव ज्ञान कुछ ज्ञान के उलटे रूप नहीं है जो कुछ हानिकारक हो किन्तु वह भी क्षायिक ज्ञान की तरह ज्ञान रूप ही है। जान का उघाड़ तो ज्ञान-ज्ञान-ज्ञानरूप है। अतः वह कुछ दोष उत्पन्न नहीं करता जो उस दोष के कारण से सम्यक्व के सविकल्प और निर्विकल्प दो भेद किये जावें। अब उसकी दूसरी शंका का उत्तर देते हैं :
ज्ञानसञ्चेतनायास्तु न स्यातद्विघ्नकारणम् ।
तत्पर्यायस्तदेवेति तद्विकल्पो न तद्रिपुः ॥ १६१३॥ शब्दार्थ - यहाँ विकल्प का अर्थ राग नहीं किन्तु ससंक्रमण ज्ञान है। चारों क्षायोपशमिक ज्ञान है।
अर्थ - वह क्षायोपशमिक ज्ञान - ज्ञानचेतना में विघ्न नहीं कर सकता क्योंकि वह भी ज्ञान की ही पर्याय है। जान की पर्याय ज्ञान रूप ही है। इसलिये विकल्प ( ससंक्रमण ज्ञान - क्षायोपशमिक ज्ञान] ज्ञानचेतना का शत्रु नहीं है।
भावार्थ:-शिष्य की दूसरी शंका यह थी कि सविकल्प सम्यग्दृष्टियों के ज्ञानचेतना नहीं होती। उसके उत्तर में उसे समझाते हैं कि यह क्षायोपशमिक ज्ञान भी तो ज्ञानरूप है और ज्ञानचेतना भी ज्ञानरूप है। दोनों ज्ञानावरण के क्षयोपशम से होते हैं। दोनों ज्ञानरूप हैं। इसलिये क्षायोपशमिक ज्ञान ज्ञानचेतना का बाधक नहीं है। दोनों ज्ञान रूप होते हुए एक-दूसरे का शत्रु कैसे हो सकता है? नहीं हो सकता। ज्ञानचेतना का जो प्रतिपक्षी कर्म है उसका उदय ज्ञानचेतना
होता है। विकल्पात्मक ज्ञान तो ज्ञान की ही पर्याय है। इसलिये वह ज्ञानचेतना का प्रतिपक्षी किसी प्रकार नहीं है। इसलिये किसी भी क्षायोपशामिक सम्यग्दृष्टि के ज्ञानचेतना न मानना भूल है।