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________________ द्वितीय खण्ड / छठी पुस्तक तैः सम्यक्त्वं द्विधा कृत्वा स्वामिभेटो द्विधा कृतः । एक: कश्चित्सरागोऽस्ति नीनरपत कश्चन ॥ १५२२ ।। शङ्का चालू - उनके द्वारा सम्यक्त्व दो प्रकार किया जा कर स्वामी के भी दो प्रकार के भेद कर दिये गए हैं। एक कोई सराग सम्यग्दृष्टि है और दूसरा कोई वीतराग सम्यग्दृष्टि है। तत्रास्ति वीतरावास्य कस्यचिज्ज्ञानचेतना । सद्दृष्टेनिर्विकल्पस्य नेतरस्य कदाचन ॥ १५२३ ॥ शङ्का चालू - उनमें किसी वीतराग निर्विकल्प सम्यग्दृष्टि के ज्ञान-चेतना है। दूसरे ( सराग सविकल्प सम्यग्दृष्टि ) के ज्ञान चेतना कभी नहीं होती है। व्यावहारिकसद्द्दृष्टेः सविकल्पस्य रागिणः । प्रतीतिमात्रमेवास्ति कुतः स्याज्ज्ञानचेतना ॥ १५९४ ॥ शङ्का चालू - ( उनके मत में ) व्यवहार सविकल्प सरागी सम्यग्दृष्टि के प्रतीति मात्र ( ९ पदार्थों की श्रद्धा मात्र ) ही है, ज्ञान-चेतना कहाँ से हो सकती है? अर्थात् नहीं है । शङ्काकार का भाव -- शङ्काकार का अभिप्राय यही है कि सम्यग्दर्शन के सविकल्प और निर्विकल्प या व्यवहार निश्चय दो भेद हैं तथा उनमें से सविकल्प या व्यवहार सम्यग्दृष्टियों के ज्ञान- चेतना नहीं होती केवल ९ तत्त्वों की श्रद्धा मात्र होती है और निर्विकल्प या निश्चय सम्यग्दृष्टियों के ज्ञान चेतना होती है। चौथे, पाँचवें, छठे में वे केवल व्यवहार सम्यग्दर्शन मानते हैं। उनके तत्त्वों की श्रद्धामात्र मानते हैं और ज्ञान- चेतना नहीं मानते। उन्हें सराग सम्यग्दृष्टि मानते हैं और सातवें से निश्चय सम्यक्त्व मानते हैं। उनके ज्ञान-चेतना मानते हैं और उन्हें निर्विकल्प सम्यग्दृष्टि मानते हैं। ऐसी मान्यता साधारण जनता की भी है और कुछ आगम पाठियों की भी है, वह गलत है। वास्तविक बात यह है कि सम्यग्दर्शन में सविकल्प और निर्विकल्प या व्यवहार निश्चय का तो भेद ही नहीं है और ज्ञान-चेतना चौथे से सिद्ध तक सब सम्यग्दृष्टियों के पाई जाती है। सो उन्हें समझाते हैं : ४३३ इति समाधान भूमिका सूत्र १५९५ से १५९८ तक ४ प्रज्ञापराधेन ये वदन्ति दुराशयाः । तेषां यावच्छ्रु ताभ्यासः कायक्लेशाय केवलम् ॥ १५९५ ।। अर्थ - इस प्रकार बुद्धि के अपराध से जो खोटे आशय वाले कहते हैं उनका जो कुछ श्रुत अभ्यास है वह केवल काय क्लेश के लिये है। भावार्थ - उसका उत्तर यह है कि शास्त्रों का ऐसा अभिप्राय नहीं है। वे जो शास्त्रों का ऐसा अर्थ करते हैं ये उनकी अपनी बुद्धि का दोष है और उनका शास्त्र अभ्यास व्यर्थ है क्योंकि वे वास्तविक तत्त्व को न पकड़ सके। अत्रोच्यते समाधानं सामवादेन सूरिभिः । उच्चैरत्फणिते दुग्धे योज्यं जलमनाविलम् ॥ १५९६ ॥ - अर्थ • इस विषय में आचार्यों के द्वारा समाधान शान्तिपूर्वक कहा जाता है। क्योंकि दूध में अधिक उबाल आने पर निर्मल जल ही डालना योग्य है। शब्दार्थ भावार्थ - इसका आशय यह है कि यह मान्यता लोगों की बहुत प्रबल है और इस रूप की गाढ़ श्रद्धा है। संस्कार ही कुछ ऐसा जम गया है जो एक वासना-सी बन गई है। अतः वह सरलता से नहीं मिटती। फिर भी उन्हें शान्तिपूर्वक समझाना चाहिये तो शायद कुछ मान जायें क्योंकि जब दूध में उबाल आ रहा हो तो ठण्डे पानी का छींटा देते हैं। इसी प्रकार उनकी यह मान्यता उबालबत है । शान्ति से समाधान करने योग्य है। - सतॄणाभ्यवहारित्वं करीत कुरुते कुदृक् । तज्जहीहि जहीहि त्वं कुरु प्राज्ञ विवेकताम् ॥ १५९७ ॥ करीव करी + इव हाथी के समान । - M
SR No.090184
Book TitleGranthraj Shri Pacchadhyayi
Original Sutra AuthorAmrutchandracharya
Author
PublisherDigambar Jain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year
Total Pages559
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size18 MB
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